आज सबको चिंतित होने की क्यों ज़रूरत है…

चीन की साजिश से भारत अभी उबरा भी नहीं है कि अफगानिस्तान में तालिबान के कब्जे ने नई मुसीबत खड़ी कर दी है।  मुसीबत बिन बुलाये मेहमान जैसी।  पड़ोस में ऐसे शासको का राज हो गया है जिसे भारत ने कभी स्वीकार नहीं किया।  हिन्दुस्तान ने हमेशा से अफगानिस्तान में एक लोकतांत्रिक सरकार की मांग की है। यही वजह है कि तालिबान के भारत से कभी अच्छे रिश्ते नहीं रहे हैं। लेकिन चीन के लिए वहां तालिबान का शासन कोई चौकाने वाली बात नहीं है।  वजह साफ़ है चीन अपने विस्तारवादी नीति में तालिबान के दौर में भी कोई रुकावट नहीं देख रहा है। कारोबार के नाम पर पाकिस्तान के रास्ते वो जिस मंसूबे को पूरा करना चाहता है उसमें बड़ी बाधा उसे नहीं दिख रही है।  चीन ने साफ़ भी कर दिया है कि अफगानिस्तान के साथ रिश्तों को मजबूती देने के मौके का वो  स्वागत करता है। चीनी प्रवक्ता ने कहा कि , ”तालिबान ने बार-बार चीन के साथ अच्छे रिश्ते की उम्मीद जाहिर की है और वे अफगानिस्तान के विकास और पुर्ननिर्माण में चीन की सहभागिता को लेकर आशान्वित हैं। हम इसका स्वागत करते हैं।” काबुल में चीन का दूतावास अभी भी काम कर रहा है। यानि सरकार कोई हो चीन की दुक़ान चलनी चाहिए। भले ब्रिटेन वैश्विक समुदाय से अपील करता रहे कि तालिबान की सरकार को मान्यता न दी जाए।

चीन अच्छी तरह जानता है कि तालिबान को प्रशिक्षण और हथियार देने में पकिस्तान का बड़ा हाथ रहा है। जब अफगानिस्तान पर तालिबान का क़ब्ज़ा था, उस समय जेहाद और इस्लाम के नाम पर तालिबान ने पाकिस्तान और वहां के आतंकवादी संगठनों की खूब मदद की थी और कई हमलों में अपने आतंकवादियों को भी कश्मीर में भेजा था। पाकिस्तान की जमीन से ही तालिबान आतंक की साजिश रचता रहा है।  ओसामा बिन लादेन पाकिस्तान में भी मारा गया था। फिर भी पाकिस्तान को चीन दोस्त मानता है।

अफगानिस्तान का  इतिहास रहा है कि जो भी वहां गया वो उनके हाथ पिटा। पहले रूस पिटा अब अमेरिका को मुंह की खानी पड़ी। अमेरिका ने इस मुद्दे पर खुद को कमजोर साबित किया है।  अमेरिका के बाद अब चीन की नजर अफगानिस्तान के प्राकृतिक संसाधनों पर है। 1990 के दशक में जब अफगानिस्तान में पश्तून आन्दोलन चरम पर था, तब सऊदी अरब की तरफ़ से इसे भरपूर समर्थन मिला। लोगों को इस्लामिक मदरसों में भेजना और सुन्नी इस्लाम की कट्टर मान्यताओं का प्रचार करना ही इस आन्दोलन का मकसद था।   इन मदरसों में लोगों की पढ़ाई का ख़र्च सऊदी अरब उठाता था।  ऐसा माना जाता है कि उत्तरी पाकिस्तान के मदरसों से तालिबान का विचार निकला।   इसके बाद अफगानिस्तान में इसका विस्तार हुआ।  यानी तालिबान की जन्मभूमि पाकिस्तान है।  इसी पश्तून आन्दोलन ने तालिबान को मुजाहिदीन गुटों से अलग पहचान दिलाई।  तालिबान ने अफगानिस्तान और पाकिस्तान के कुछ हिस्सों में शांति, सुरक्षा और शरिया क़ानून की स्थापना का वादा किया और सत्ता के लिए एक नया संघर्ष शुरू हो गया। 1996 आते-आते तालिबान ने काबुल पर क़ब्ज़ा कर लिया।

चीन अक्सर अमेरिका पर आतंकवाद को लेकर दोहरी नीति चलने का आरोप लगाता रहा है। 9/11  हमले के बाद उसने यहाँ तक कहा कि अमेरिका ने इस हमले से कोई सबक नहीं लिया।  लेकिन खुद चीन भूल रहा है कि अफ़ग़ानिस्तान के मामले में वह भी वही कर रहा है।

1 सितम्बर 2001 को जब आतंकवादी संगठन अल कायदा ने अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर  पर हमला किया, तब अल कायदा अफगानिस्तान की ज़मीन से ही ऑपरेट करता था।  जिस तालिबान को अमेरिका पैसा और हथियार दोनों देता था, उसके ख़िलाफ़ ही उसने युद्ध छेड़ दिया और ये लड़ाई 20 साल तक चली । ये अलग बात है कि सोवियत संघ की तरह अमेरिका को भी बिना कुछ हासिल किए अफगानिस्तान से अपनी सेना को वापस बुलाना पड़ा। हैरत कि बात है बड़े-बड़े देश कैसे अपने हितों के लिए ऐसे देशों को क्रूरता की आग में झोंक देते हैं और जैसे ही इन्हें लगता है कि अब इनका मकसद पूरा हो गया है और इनके लिए यहां कुछ नहीं बचा, तो ये वापस इसी तरह लौट जाते हैं। लेकिन वे भूल जाते है कि इसका आसपड़ोस के देशों पर भी प्रतिकूल असर पड़ेगा।  हिंदुस्तान इससे अछूता रहेगा ये सोचना बेमानी है। दिल्ली, लखनऊ, हैदराबाद, बेंगलूरु, केरल, मुम्बई या देश के किसी और शहर या गांव में इसका असर नहीं होगा ऐसा नहीं है।

पाकिस्तान के पेशावर और अफगानिस्तान की राजधानी काबुल को जोड़ने वाली सड़क पर सीमा के पास जो अफगानिस्तान की तोरखम बॉर्डर पोस्ट है, वहां से कश्मीर में लाइन ऑफ कंट्रोल की दूरी लगभग 400 किलोमीटर है। जाहिर है ऐसे में कश्मीर में तालिबान प्रायोजित आतंकवाद का असर दिख सकता है।

भले ही तालिबान अब खुद को उदारवादी बता रहा हो।  तालिबान की वापसी से अफगानिस्तान हिन्दू विरोधी और भारत विरोधी ताक़तों का फिर से एपीसेंटर बन जाएगा।  आज से 20 साल पहले जब अफगानिस्तान में तालिबान की सरकार थी तब वहां से भारत के ख़िलाफ़ कई साज़िशें रची गईं, इनमें 24 दिसम्बर 1999 में हुई कंधार हाईजैक की आतंकी घटना सबसे प्रमुख है। इसमें आतंकवादियों ने नेपाल के काठमांडू से दिल्ली के लिए उड़े IC 814 विमान को हाईजैक कर लिया था और इसके बदले में मसूद अजहर समेत तीन आतंकियों को रिहा करा लिया था।  इस विमान को कंधार में उतारा गया था और तालिबान ने इन आतंकियों को पूरी सुरक्षा दी थी।  2001 में तालिबान ने बाम्यान में बुद्ध की प्राचीन और सबसे बड़ी प्रतिमा को भी तोड़ दिया था।  यानी अफगानिस्तान में तालिबान का शासन फिर से आने के बाद यही तस्वीरें दोबारा देखने को मिल सकती है।

तालिबान का इस्लामिक आतंकवादी संगठनों के साथ संबंध बना रहा है और आगे भी रहेगा, जो भारत के लिए सबसे बड़ा खतरा है। वे पाकिस्तानी आतंकी संगठनों के साथ मिलकर एलओसी, लद्दाख, अरुणाचल प्रदेश, सियाचीन जैसे क्षेत्र में अशांति पैदा कर सकते हैं। चीन-पाकिस्तान मिलकर भारत के खिलाफ तालिबान पर कोई न कोई कार्रवाई करने के लिए दबाव बना सकते हैं।  ऐसे में भारत को अपनी नीति पर दोबारा विचार करने कि जरुरत है जो देश हित में हो।  हालांकि जानकार मानते है कि  अफगानिस्तान की सवा तीन करोड़ की आबादी में पश्तून, उज्बेक और ताजिक जातियां है। पश्तून की आबादी 40 फीसदी से ज्यादा है। तालिबान की असली ताकत यही है। इनकी फितरत आपस में लड़ने की रही है। इसलिए हम ‘वेट एंड वाच’ पॉलिसी को भी अपना सकते हैं। इस समय तालिबान में एकता है लेकिन सत्ता हस्तांतरण के समय इनमें फूट पड़ने की आशंका है।  इस बात में कितना दम है, अभी नहीं कहा जा सकता है। दुश्मन को कमजोर समझने और समय रहते खत्म न करने के कारण ही आज दुनिया में इस्लामिक स्टेट (आईएसआईएस) , अलकायदा, तालिबान, तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान, बोको हराम, अल नुस्रा फ्रन्ट हिजबुल्लाह, हमास कुर्दिस्तान वर्कर्स पार्टी (पीकेके), रिवोल्यूशनरी आर्म्ड फोर्सेस ऑफ कोलंबिया जैसे संगठन वजूद में है।

(सर्वेश तिवारी)

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