शाकाहार दिवस विशेष:राजस्थान के गांवों में 70 साल में 65% आबादी शाकाहारी हुई

घरों में सफेद झंडा लगाकर लोग बताते हैं- हमने मांसाहार छोड़ दिया

दुनियाभर में 1 अक्टूबर को विश्व शाकाहार दिवस मनाया जाता है। भास्कर इस मौके पर आपको राजस्थान के बांसवाड़ा जिले के उन आदिवासी गांवों के बारे में बता रहा है, जहां 70 साल में 65% आबादी शाकाहारी हो गई। मांसाहार के अलावा यहां रहने वाले लोगों ने शराब से भी दूरी बना ली। आनंदपुरी, घाटोल, दानपुर, कुशलगढ़ और छोटी सरवन जैसे इलाकों में रहने वाले परिवार लोगों को इसके लिए प्रेरित भी करते हैं। आदिवासी बहुल्य इन गांवों में अलग-अलग पंथों को मानने वाले लोग रहते हैं।

झंडों से पता चलता है परिवार शाकाहारी

गांवों के शाकाहारी परिवार अपने घरों की छत पर सफेद झंडे लगा लेते हैं। यह इस बात की निशानी होती है कि यह परिवार शाकाहारी है। कुछ लोग दूसरे रंग के झंडे भी लगता हैं, लेकिन ज्यादातर के घरों में सफेद झंडे ही मिलेंगे।

पहले चलन में था मांसाहार, बाद में आया बदलाव

घाटोल के ठीकरिया चंद्रावत में रहने वाले बदामीलाल कोठवाल ने बताया कि उनके रिश्तेदारों में आज भी मांसाहर का चलन है, लेकिन 20 साल पहले एक सत्संग मंडली के संपर्क में आने के बाद उन्होंने मांसाहार छोड़ दिया। उन्होंने अपने घर में सफेद झंडा लगा रखा है।हिम्मतसिंह का गढ़ा में रहने वालीं मनीषा डामोर ने बताया कि उन्होंने तो जन्म से मांसाहार का सेवन नहीं किया। उनका परिवार भक्ति करता है और धर्म गुरु के निर्देश में रहता है।छोटी सरवन में रहने वाले मुकेश रावत कहते हैं कि नोन कमांड इलाके में पहले हरी सब्जी नहीं होती थी। तब लोग मजबूरी में मांसाहार करते थे, लेकिन अब उनका परिवार इन बुराइयों से दूर है। वह सुबह उठकर श्रीराम की पूजा करते हैं। नित्य कर्म पूरे करने के बाद ही भोजन लेते हैं।

यहां रहने वाले लोग बताते हैं कि आदिवासी समाज पेट भरने के लिए पहले मांस का सेवन करता था। बदलाव आया तो शाकाहार का चलन बढ़ गया। आज भी करीब 35 फीसदी आदिवासी समाज मांस और मदिरा का सेवन करता है।

रतलाम रोड पर स्थित एक मकान के बाहर लगा सफेद झंडा।

यूं चला पंथ से जुड़ने का सिलसिला
राम और कृष्ण पंथ तो इस क्षेत्र के लिए पुराना है। करीब 350 साल से माव पंथी वागड़ के बेणेश्वर धाम से जुड़े हुए हैं। उनकी कई पीढ़ियां आज तक मांस और शराब से दूर हैं। करीब 70 साल पहले उत्तर भारत से मामा बालेश्वर दयाल (पंडित) यहां छोटी सरवन की ओर आए थे। उन्होंने लोगों में धार्मिक भावनाओं को जगाया। सत्संग और पूजा पाठ सिखाया। इसके बाद बहुत से परिवार आदर्श के तौर पर उनके फॉलोअर होते गए। अब यहां राम नामी पंथ, कृष्ण पंथ, माव पंथ, कबीर पंथ और दाद भक्ति जैसे पंथों से जुड़कर बदले हुए परिवार उनके मकानों के बाहर सफेद झंडे लगा देते हैं।

कई जगहों पर तो दूसरी पीढ़ी ने भी जन्म से ऐसे ही नियमों को अपना लिया है। ग्रामीण इलाकों में झंडों की बढ़ती संख्या के साथ आदिवासी समुदायों का ध्यान सत्संग और धार्मिकता की ओर भी बढ़ा है। छोटी सरवन, दानपुर, घाटोल, कुशलगढ़, आनंदपुरी जैसे इलाकों में पंथों को मानने वाले लोगों की संख्या अधिक है। खास बात यह है कि जिले की सीमाओं में रहने वाले परिवारों में यह चलन अधिक है।

पंथ मानने वालों के गले में माला और माथे पर तिलक भी विशेष पहचान है।

सफेद से मतलब शांति
साधु-संतों की मानें तो सफेद कपड़ा शांति का प्रतीक है। अधिकांश आदिवासी परिवार राम पंथी होकर भी घरों के बाहर सफेद ध्वज लगाते हैं। उनकी सोच है केसरिया ध्वज लगाने से वह राजनीति का शिकार हो जाएंगे।

समय के साथ आया बदलाव
भारत माता मंदिर के रामस्वरूप महाराज के अनुसार बांसवाड़ा में अलग-अलग पंथ को मानने वालों की संख्या पहले से बढ़ी है। पंथों के माध्यम से आदिवासी परिवारों में सुधार आ रहा है। ये परिवार विकसित भी हुए हैं। उनका सामाजिक और आर्थिक स्तर भी बढ़ा है। सफेद रंग शांति से जीने की राह दिखाता है। इसलिए इस रंग का उपयोग करने वाले लोगों की संख्या ज्यादा है।

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