जातिगत जनगणना क्यों जरूरी

नीतीश और तेजस्वी क्यों चाहते हैं बिहार में जातिगत जनगणना; क्यों मोदी सरकार कर रही है इससे इनकार? जानिए सब कुछ

आज बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलने वाले हैं। दोनों नेता 2021 की जनगणना में जातिगत गणना की मांग को लेकर प्रधानमंत्री से चर्चा करेंगे। बिहार में भाजपा को छोड़कर बाकी सभी दल जातिगत जनगणना की मांग कर रहे हैं। बिहार समेत कई राज्यों के क्षेत्रीय नेता इसकी मांग कर रहे हैं। हालांकि, केंद्र की मोदी सरकार पहले ही इससे इनकार कर चुकी है।

हर जनगणना से पहले इस तरह की मांग होती है, लेकिन आखिर इसकी जरूरत क्या है? आखिरी बार इस तरह की जनगणना कब हुई थी? पहले कब जातिगत जनगणना की मांग हुई है? केंद्र सरकार जातिगत जनगणना से क्यों कतरा रही है? आइए जानते हैं…

आखिरी बार कब हुई थी जातिगत जनगणना?
देश में पहली बार 1881 में जनगणना हुई थी। पहली बार हुई जनगणना में भी जातिगत जनगणना के आंकड़े जारी हुए थे। तब से हर 10 साल पर जनगणना होती है। 1931 तक की जनगणना में जातिवार आंकड़े भी जारी होते थे। 1941 की जनगणना में जातिवार आंकड़े जुटाए गए थे, लेकिन इन्हें जारी नहीं किया गया। आजादी के बाद सरकार ने सिर्फ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की आबादी का डेटा जारी करने का फैसला किया। इसके बाद से बाकी जातियों के जातिवार आंकड़े कभी पब्लिश नहीं हुए।

जातिगत जनगणना की जरूरत क्या है?
आजादी के बाद पहली बार 1951 में जनगणना हुई। तब से अब तक हुई सभी 7 जनगणना में SC और ST का जातिगत डेटा पब्लिश होता है, लेकिन बाकी जातियों का डेटा इस तरह पब्लिश नहीं होता। इस तरह का डेटा नहीं होने के कारण देश की OBC आबादी का ठीक-ठीक अनुमान नहीं लगाया जा सकता है। वीपी सिंह सरकार ने जिस मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू कर पिछड़ों को आरक्षण दिया, उसने भी 1931 की जनगणना को आधार मानकर देश में OBC की आबादी 52% मानी थी। चुनाव के दौरान अलग-अलग पार्टियां अपने चुनावी सर्वे और अनुमान के आधार पर इस आंकड़े को कभी थोड़ा कम कभी थोड़ा ज़्यादा करके आंकती रहती हैं।

एक्सपर्ट्स कहते हैं कि देश में SC और ST वर्ग को जो आरक्षण मिलता है उसका आधार उनकी आबादी है, लेकिन OBC आरक्षण का कोई मौजूदा आधार नहीं है। अगर जातिगत जनगणना होती है तो इसका एक ठोस आधार होगा। जनगणना के बाद उसकी संख्या के आधार पर आरक्षण को कम या ज्यादा करना पड़ेगा।

इसकी मांग करने वालों का दावा है कि ऐसा होने के बाद पिछड़े-अति पिछड़े वर्ग के लोगों की शैक्षणिक, सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक स्थिति का पता चलेगा। उनकी बेहतरी के लिए मुनासिब नीति निर्धारण हो सकेगा। सही संख्या और हालात की जानकारी के बाद ही उनके लिए वास्तविक कार्यक्रम बनाने में मदद मिलेगी।

पहले कब जातिगत जनगणना की मांग हुई है?
लगभग हर जनगणना से पहले इस तरह की मांग उठती है। ये मांग अक्सर उन नेताओं की ओर से उठाई जाती है जो OBC के होते हैं। वहीं ऊंची जाति के नेता इस तरह की मांग का विरोध करते हैं। इस बार भी नीतीश कुमार, तेजस्वी यादव, मुकेश सहनी जैसे नेता ये मांग कर रहे हैं। यहां तक कि महाराष्ट्र भाजपा नेता पंकजा मुंडे ने भी 24 जनवरी को एक ट्वीट करके इस तरह मांग की थी।

एक अप्रैल को राष्ट्रीय पिछड़ा आयोग ने भी सरकार से 2021 की जनगणना में OBC आबादी की गणना कराने की मांग की थी। यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट में भी इससे जुड़े एक याचिका पेंडिंग है।

केंद्र सरकार का इस पर क्या रुख है?
गृह मंत्रालय ने बजट सत्र में राज्यसभा और मानसून सत्र में लोकसभा में इस तरह की जनगणना से इनकार किया है। अपने जवाब में गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने कहा है कि हर बार की तरह इस बार भी केवल SC और ST कैटेगरी की जातिगत जनगणना होगी।

हालांकि, मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में सरकार का रुख ऐसा नहीं था। 31 अगस्त 2018 को उस वक्त के गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने 2021 की जनगणना की तैयारियों पर एक मीटिंग की थी। इस मीटिंग के बाद PIB ने जानकारी दी थी कि इस बार की जनगणना में OBC की गणना के बारे में सोचा जा रहा है।

जब भाजपा विपक्ष में थी तब उसके ही नेताओं का रुख कुछ और था। 2011 की जनगणना से पहले पूर्व केंद्रीय मंत्री और भाजपा नेता गोपीनाथ मुंडे ने जातिगत जनगणना की मांग की थी। उन्होंने 2010 में संसद में कहा था कि अगर हम 2011 की जनगणना में OBC की गणना नहीं करेंगे, तो हम उन पर अन्याय करेंगे।

केंद्र सरकार जातिगत जनगणना से क्यों कतरा रही है?
सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज (CADS) में प्रोफेसर और राजनीतिक टिप्पणीकार संजय कुमार ने दैनिक भास्कर में लिखे अपने लेख में कहा कि मंडल कमीशन के बाद की राजनीति में बड़ी संख्या में बहुत ही मजबूत क्षेत्रीय दलों का उभार हुआ, खासकर बिहार और UP में। RJD व JDU ने बिहार में और सपा ने उत्तर प्रदेश में OBC के मसले को उठाया और OBC वोटरों का जबर्दस्त समर्थन पाने में सफल रहे। हकीकत में OBC वोटर ही बड़ी संख्या में क्षेत्रीय दलों के प्रमुख समर्थक बन गए।

पिछले कुछ चुनावों से OBC वोटरों में भाजपा की लोकप्रियता बढ़ी है। भाजपा उत्तर भारत के अनेक राज्यों में प्रभावी OBC की तुलना में निचले OBC को लुभाने में अधिक सफल रही। इसलिए भाजपा ने भले ही OBC पर अपनी पहुंच बनाकर चुनावी लाभ ले लिया हो, लेकिन इनके बीच उसका समर्थन उतना मजबूत नहीं है, जितना कि उच्च वर्ग और उच्च जातियों के बीच है।

वो कहते हैं कि भाजपा का जातिगत गणना से कतराने का मुख्य कारण यह डर है कि अगर जातिगत गणना हो जाती है, तो क्षेत्रीय राजनीतिक दलों को केंद्र सरकार की नौकरियां और शिक्षण संस्थाओं में OBC कोटे में बदलाव के लिए सरकार पर दबाव बनाने का मुद्दा मिल जाएगा, बहुत हद तक संभव है कि OBC की संख्या उन्हें केंद्र की नौकरियों में मिल रहे मौजूदा आरक्षण से कहीं अधिक हो सकती है।

यह मंडल-2 जैसी स्थिति उत्पन्न कर सकती है और भाजपा को चुनौती देने का एजेंडा तलाश रहीं क्षेत्रीय पार्टियों को नया जीवन भी। यह डर भी है कि OBC की संख्या भानुमती का पिटारा खोल सकती है, जिसे संभालना मुश्किल हो जाएगा।

2011 में जातियों के आंकड़े जुटाए गए थे तो जारी क्यों नहीं हुए?
2011 की जनगणना के दौरान UPA सरकार ने सामाजिक आर्थिक जाति जनगणना (SECC) कराई थी। कहा जाता है कि उस वक्त लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव सरकार पर जातिगत जनगणना का दबाव डाल रहे थे। इसके साथ ही पिछड़ी जाति के कांग्रेस नेता भी ऐसा चाहते थे। कई दौर की मीटिंग के बाद सरकार ने SECC कराने का रास्ता निकाला था। इसके लिए 4 हजार 389 करोड़ रुपए का बजट पास हुआ। 2016 में जाति को छोड़कर SECC का बाकी डेटा मोदी सरकार ने जारी कर दिया।

जातियों का रॉ डेटा सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय को सौंप दिया गया। जातियों के कैटेगराइजेशन और क्लासिफिकेशन के लिए मंत्रालय ने नीति आयोग के उपाध्यक्ष की अध्यक्षता में एक कमेटी बना दी। इस कमेटी ने क्या रिपोर्ट बनाई ये पब्लिश भी हुई या नहीं ये भी क्लियर नहीं है। आज तक इससे जुड़ी रिपोर्ट पब्लिक नहीं हुई है।

क्या कभी किसी राज्य सरकार ने इस तरह की कोशिश की?
कर्नाटक के तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने 2014-15 में जाति आधारित जनगणना का फैसला किया। इसे असंवैधानिक बताया गया तो नाम बदलकर ‘सामाजिक एवं आर्थिक’ सर्वे कर दिया। इस पर 150 करोड़ रुपए खर्च हुए। 2017 के अंत में कंठराज समिति ने रिपोर्ट सरकार को सौंपी। शुरुआत में लग रहा था कि अल्पसंख्यक, OBC और दलितों की गिनती राज्य का सियासी गणित बदल देगी, लेकिन ये कवायद विवादों में घिर गई। अपने समुदाय को OBC या SC/ST में शामिल कराने के लिए जोर दे रहे लोगों के लिए यह सर्वे बड़ा मौका बन गया। अधिकतर ने उपजाति का नाम जाति के कॉलम में दर्ज कराया।

इसके चलते कर्नाटक में अचानक 192 से अधिक नई जातियां सामने आ गईं। लगभग 80 नई जातियां तो ऐसी थीं, जिनकी जनसंख्या 10 से भी कम थी। एक तरफ OBC की संख्या में भारी वृद्धि हो गई, तो दूसरी तरफ लिंगायत और वोक्कालिगा जैसे प्रमुख समुदाय के लोगों की संख्या घट गई। विवादों के बीच सिद्धारमैया सरकार ने यह रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं की।

हालांकि, इस गणना की प्रतियां राजनेताओं को अपने जिले का जातिगत समीकरण समझने के लिए बाजार में मिलती रहीं। और तो और, जनगणना कराने वाली सिद्धारमैया सरकार ने भी इसे स्वीकार नहीं किया। उसके बाद बनी JD(S)-कांग्रेस गठबंधन सरकार व वर्तमान भाजपा सरकार ने भी 150 करोड़ खर्च कर बनी इस रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया।

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