सेम सेक्स का मुद्दा फिर गरमाया:होमोसेक्सुअलिटी पर बनी फिल्मों पर मचा शोर,

एलजीबीटी को स्वीकारा पर उनके मुद्दों से बना रहे दूरी

आइडेंटिटी क्राइसिस से जूझ रहे इन स्टूडेंट्स में 84% को उनके बैचमेंट्स, 58% को सीनियर्स ने और 19% को पुरुष शिक्षकों की बुलिंग का शिकार होना पड़ता है

धारा 377 के हटाए जाने के बाद से एलजीबीटी कम्युनिटी महसूस करने लगी है कि उनको लेकर समाज बदलाव के प्रथम दौर में हैं। हालांकि, अभी भी इनसे जुड़े विषय विवाद बन जाते हैं। शिक्षाविद् इस बारे में जागरूकता फैलाने को तैयार हैं लेकिन उनको पेरेंट्स की आपत्ति का भय है। पेरेंट्स को डर है कि समाज में ऐसे झुकाव रखने वाले बच्चे स्वीकारे नहीं जाते। कुल मिलाकर कहें तो, सेम सेक्स रिलेशनशिप से जुड़े मुद्दे में अभी भी कई पेंच हैं।

कॉमेडी के लिए नहीं बनती ऐसी फिल्में
अक्सर फिल्मों में होमोसेक्सुलिटी के सीन्स को कॉमेडी के अंदाज में दिखाया गया है। लेकिन पिछले कुछ सालों में इस पर गंभीर फिल्में भी बनी। एक्टर मनोज वाजपेयी की मूवी ‘अलीगढ़’ इसी में शामिल है। कुछ दिन पहले पश्चिम बंगाल के स्कूलों में समलैंगिक सबंधों पर बनी शॉर्ट फिल्मों को दिखाए जाने के मुद्दे पर बहस छिड़ गई है। कोलकाता की गैर-सरकारी संस्था प्रयासम का मानना है कि हाईस्कूल स्टूडेंट्स में ऐसी फिल्में दिखाए जाने से एलजीबीटी के प्रति लोग सेंसिटाइज होंगे। एलजीबीटी कम्युनिटी से जुड़ी मित्र फाउंडेशन की रुद्राणी छेत्री का मानना है कि सूचनाओं से ही सुधार लाया जा सकता है। दहेज प्रथा, कुष्ठ रोग के प्रति लोगों की सोच में इसी तरह से बदलाव लाया गया है।

ऐसी सोच का उन्मूलन हो
भारत में एलजीबीटी स्टूडेंट्स पर हुए सेक्सुअल ओरिएंटेशन एंड जेंडर आइडेंटिटी के अध्ययन में पाया गया कि स्कूलों में ऐसे स्टूडेंट को फिजिकल और सेक्सुअल हैरेसमेंट से गुजरना पड़ता है। इनमें से प्राइमरी स्कूल के करीब 43 % स्टूडेंट्स को सेक्सुअल हैरेसमेंट का सामना करना पड़ता है। वहीं मिडिल स्कूल के करीब 60% और हाइअर सेकंडरी के 50 % स्टूडेंट्स को शारीरिक प्रताड़ना झेलनी पड़ती है। स्टडी में मदुराई के एक स्टूडेंट ने स्वीकारा कि सेक्स ओरिएंटेशन को लेकर होने वाली बुलिंग के कारण उसने स्कूल जाना छोड़ दिया और मां के साथ काम पर जाने लगी। तिरुनेल्वेल्ली के एक स्टूडेंट्स ने इसी वजह से क्लास 7 के बाद स्कूल छोड़ दिया। उसके शिक्षक उसे सजा देते थे और सहपाठी कम्पास चुभोते थे।

मसाला नहीं गंभीर फिल्मों का मामला
एनजीओ ‘प्रयासम’ की ओर से दिखाई जाने वाली 8 फिल्मों में होमोसेक्सुअलिटी के अनछूए पहलुओं को उभारने का प्रयास किया गया है। फिल्म ‘देखा’ में एक बिछड़े पिता से उसके समलैंगिक बेटे के मुलाकात को दिखाया गया है, फिल्म ‘दूरबीन’ में यह दिखाया गया है कि एक बेटे पर क्या गुजरती है जब उसे पता चलता है कि उसका पिता समलैंगिक है। एक और फिल्म ‘देया नेया’ में एक आम आदमी और फूड डिलीवरी बॉय के रिलेशनशिप को फोकस किया गया है।

स्कूलों में भी बच्चों की होती है बुलिंग
यूनेस्को की ओर से 2018 में हुई स्टडी में पाया गया कि स्कूलों में आइडेंटिटी क्राइसिस से जूझ रहे इन स्टूडेंट्स में 84% को उनके बैचमेंट्स, 58% को सीनियर्स ने और 19% को पुरुष शिक्षकों की तानाकशी या बुलिंग का शिकार होना पड़ता है। पारस हॉस्पिटल की साइकेट्रिस्ट डॉ. ज्योति कपूर स्वीकारती हैं कि सेक्स एजुकेशन की तरह सेम सेक्स संबंधों पर भी बच्चों से बात करनी जरूरी है। घर में पेरेंट्स और स्कूल में टीचर्स जब इस पर चर्चा करेंगे, तो ऐसे बच्चे पहचान को लेकर उधेड़बुन में नहीं रहेंगे। मैंने ऐसे कई पेंरेट्स से बात की है, जो आज भी इसे बीमारी ही समझते हैं जबकि सेम सेक्स के प्रति झुकाव ठीक उसी तरह है जैसे अपोजिट सेक्स के प्रति।

इस विषय के लिए बेस्ट मीडिया है सिनेमा
‘खिचड़ी’ जैसी मशहूर फिल्म से जुड़े फिल्मकार जीडी मजीठिया का कहना है कि इन विषयों पर बनी गंभीर फिल्में सेक्स से भरपूर मसाला पेश नहीं करतीं बल्कि सेंसेटिव मुद्दे को उठाती हैं। इनमें एलजीबीटी से जुड़े लोगों की मनोदशा को दिखाया जाता है। होमोसेक्सुअलिटी जैसे विषयों को एक फिल्मकार तभी पर्दे पर लाता है, जब वह अंदर से व्यथित महसूस करता है। ऐसे फिल्मों को सार्वजनिक तौर पर दिखाए जाने के पहले अलग-अलग तरह के सर्टिफिकेट दिए जाते हैं। ‘माई ब्रदर निखिल’ जैसी फिल्में लोगों के एंटरटेन करने के लिए नहीं एजुकेट करने के लिए बनाई गई हैं।

पेरेंट्स की सहमति से ही संभव
दिल्ली के मॉडर्न स्कूल की प्रिंसिपल डॉ.अलका कपूर का कहना है कि स्कूल प्रशासन पेरेंट्स की सहमति से ऐसी जागरूकता लाना चाहती है। अगर टीचर को स्टूडेंट में ऐसे झुकाव दिखते हैं, तो वे पेरेंट्स की काउंसलिंग करें। वह स्वीकारती हैं, “ एक्टर अनिल कपूर और सोनम कपूर की फिल्म ‘एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा’ इसी विषय पर थी। इसने मेरे ऊपर भी गहरी छाप छोड़ी। ऐसी सेंसेटिव फिल्में देखने के बाद नजरिए में बदलाव आता है। मैं इस कम्युनिटी के लोगों के लिए स्कूल में जॉब शुरू करना चाहती हूं क्योंकि अभी भी इनमें से ज्यादातर मेकअप आर्टिस्ट या फैशन डिजाइनर हैं। बड़ी संख्या में इन लोगों को समाज की मुख्यधारा में नौकरियों नहीं मिल पाती है।” हर स्तर पर बदलाव जरूरी है।

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