“मुझे हराने के लिए मोदी को विरोधी के पैर छूने पड़े”, क्या ‘अवध ओझा’ ज्यादा बोल गए ? सोशल मीडिया पर बवाल

दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी (AAP) के उम्मीदवार अवध ओझा ने अपनी हार का जिम्मेदार सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की एक भावनात्मक रणनीति को ठहराया है। ओझा का कहना है कि पीएम मोदी ने उनके प्रतिद्वंदी बीजेपी प्रत्याशी रविंद्र सिंह नेगी के पैर छुए, जिससे जनता का मन बदल गया और वे चुनाव हार गए।

क्या कहा अवध ओझा ने?

पटपड़गंज सीट से चुनाव लड़ रहे अवध ओझा ने एक सार्वजनिक कार्यक्रम में कहा—

“मुझे हराने के लिए देश के प्रधानमंत्री को मेरे विरोधी का पैर छूना पड़ा था। अगर वो पैर नहीं छूते, तो मैं हारता नहीं।”

उनके इस बयान के बाद सोशल मीडिया पर भी तीखी बहस छिड़ गई है, जिसमें कुछ इसे भावनात्मक राजनीति बता रहे हैं तो कुछ इसे विपक्ष की बौखलाहट का संकेत मान रहे हैं।

घटना का पूरा विवरण: कहां और कैसे हुआ ये सब?

यह घटना जनवरी 2025 की है जब पीएम मोदी दिल्ली के पटपड़गंज में एक चुनावी जनसभा को संबोधित कर रहे थे। उस वक्त मंच पर बीजेपी उम्मीदवार रविंद्र सिंह नेगी ने प्रधानमंत्री के पैर छूने की कोशिश की। इस पर पीएम मोदी ने पलटकर नेगी के पैर तीन बार छू लिए। यह दृश्य कैमरे में कैद हो गया और वायरल हो गया।

ओझा का कहना है कि यह दृश्य जनता के दिल में भावनात्मक असर डाल गया, जिससे उनका वोट प्रतिशत प्रभावित हुआ।

विरोधी कौन? रविंद्र सिंह नेगी का प्रोफाइल

रविंद्र सिंह नेगी बीजेपी के कद्दावर नेता माने जा रहे हैं। उन्होंने दिल्ली नगर निगम में पार्षद के रूप में काम किया है और 2025 में पहली बार विधानसभा चुनाव लड़ा। उन्होंने पटपड़गंज से 28 हजार से अधिक वोटों के अंतर से जीत हासिल की। इससे पहले 2020 में वह मनीष सिसोदिया को कड़ी टक्कर दे चुके थे।

विवादों से भी जुड़ा रहा है नाम

नेगी हाल ही में एक वीडियो के चलते विवादों में रहे, जिसमें उन्होंने कथित तौर पर मुस्लिम दुकानदारों को “हिंदू नाम के बोर्ड न लगाने” की सलाह दी थी। इस पर सोशल मीडिया पर भारी विरोध हुआ, लेकिन भाजपा ने इसे स्थानीय संस्कृति और पारदर्शिता की बात कहकर बचाव किया।

रणनीति या इमोशनल कार्ड?

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि पीएम मोदी का यह कदम एक बड़ी भावनात्मक रणनीति हो सकता है। जब एक राष्ट्र नेता मंच पर किसी छोटे कार्यकर्ता के पैर छूता है, तो वह दृश्य जनता की सोच और वोटिंग व्यवहार पर प्रभाव डाल सकता है।

हार के पीछे इमोशनल वेव या रणनीतिक चाल?

अवध ओझा का यह बयान चुनावी राजनीति में एक नई बहस को जन्म देता है। क्या भावनाओं से चुनाव जीतने की कोशिश लोकतंत्र के मूल्यों से मेल खाती है? या फिर यह एक कुशल राजनीतिक रणनीति है?

जनता तय करेगी कि यह चुनावी नैतिकता का उल्लंघन था या लोकतंत्र की एक और परत।

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