काबुल से भागी एक महिला की आपबीती

मैं डरी नहीं हूं, लेकिन गुस्से से सुलग रही हूं, दुनिया के तालिबान को स्वीकारने की सबसे बड़ी कीमत महिलाओं को चुकानी पड़ रही है

13 अगस्त 2021, एक मनहूस तारीख जब 20 साल बाद एक बार फिर से तालिबान ने हेरात पर कब्जा कर लिया। इसके साथ ही बराबरी और आजादी के हमारे सपने टूट गए। मैं यकीन नहीं कर पा रही थी। मेरा बुरा ख्वाब हकीकत बन चुका था। इससे पहले 28 जुलाई को तालिबान ने जब हेरात पर हमले शुरू किए थे तब हमें अंदाजा नहीं था कि ये शहर इतनी जल्दी तालिबान के कब्जे में आ जाएगा। इसके दो दिन के भीतर ही काबुल भी ढह गया।

15 अगस्त 2021, सुबह 11 बजे का वक्त था। मुझे लग रहा था कि मैं किसी गहरे कुएं में गिरती जा रही हूं। ये कुआं इतना गहरा था कि इसके खुले छोर पर रोशनी तक दिखाई नहीं दे रही थी। तालिबान के डर से ज्यादातर लोगों ने अपने घरों के दरवाजे और खिड़कियां बंद कर ली थीं और खुद को घरों में कैद कर लिया था, लेकिन मैं उस दिन सड़कों पर बाहर निकली। मुझे अपनी खुली आंखों से वह मंजर देखना था। वह खौफनाक डर हकीकत में बदल गया था। वे काबुल की सड़कों पर हाथों में हथियार लिए चल रहे थे।

ऐसा लग रहा था मानों वे 20 साल बाद अपनी कब्रों से उठ खड़े हुए हों। उनकी वही सुरमा लगी आंखें थीं, वही बिखरे लंबे बाल। उन्हें देखते हुए मैं सोच रही थी कि काश मैं मर चुकी होती और दूसरी बार अपने देश का पतन देखने से बच जाती। उस दिन मैंने तय किया कि मैं अपना देश छोड़कर नहीं जाऊंगी। मैं यहीं रहूंगी। मैंने अपनी आवाज उठाने का फैसला किया। रो-रोकर मेरी आंखें सूज चुकी थीं। मेरा गला भर चुका था, लेकिन फिर भी जिस किसी पत्रकार ने मुझसे संपर्क किया, मैंने उससे बात की।

उन मुश्किल हालात में मुझे भरोसा देने के लिए मेरे अम्मी-अब्बा गांव से काबुल आ गए। मेरे पिता ने मुझे गले लगाया और भरोसा दिया कि डरो मत, तुम्हें कुछ भी नहीं होगा। मैं डरी हुई नहीं थी, लेकिन गुस्से और दुख से मैं भीतर ही भीतर सुलग रही थी। ऐसा लग रहा था मानों हमें बेच दिया गया हो। काबुल के तालिबान के नियंत्रण में आते ही अंतरराष्ट्रीय समुदाय सिक्योरिटी जोन में लौट चुका था। हमारे अपने अफगान लोग इसकी कीमत चुका रहे थे। दुनिया के तालिबान को स्वीकार करने के फैसले की सबसे बड़ी कीमत हम महिलाओं को चुकानी थी।

मैं दिन में लोगों से बात करती। काबुल और अफगानिस्तान के हालात के बारे में बताती और रात भर रोती रहती। इंटरव्यू देते हुए भी मेरी आंखों से आंसू बह रहे होते। मैं बस यह चाहती थी कि दुनिया अफगानिस्तान के लोगों का दर्द समझे। यहां की औरतों का दर्द समझे। मैं चाहती थी कि दुनिया यह बात समझे कि हमें कितने सस्ते में बेच दिया गया है और हमारी हालत कितनी दयनीय है।

मेरे पास किसी भी समय काबुल से सुरक्षित निकलने का मौका था, लेकिन मैं काबुल से लोगों को निकाले जाने के अंतिम घंटे तक रुकी रही। मैं पहले भी अमेरिका में रह चुकी हूं। काबुल के पतन से कुछ दिन पहले ही मुझे हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के रेडक्लिफ इंस्टीट्यूट से फैलोशिप मिली थी। मुझे 1 सितंबर को हार्वर्ड पहुंचना ही था। मेरे पिता जोर दे रहे थे कि मैं देश छोड़कर चली जाऊं। आखिरकार मुझे अपने पिता की जिद और अपने बच्चे की जान की खातिर काबुल छोड़ना पड़ा।

मेरे पिता हार्वर्ड में मेरी फैलोशिप को लेकर भी चिंतित थे। मैंने जिस सक्रियता से अफगानिस्तान में महिला अधिकारों को लेकर बात की थी, उससे तालिबान के शासन में मुझे और मेरे परिवार को खतरा होना ही था। मैं ये भी जानती थी कि अमेरिका में प्रकाशित मेरी ताजा किताब अफगानिस्तान में मेरे परिवार के लिए मुश्किलें खड़ी कर सकती है। मेरे परिवार के पास अफगानिस्तान से निकलने का मौका नहीं था। मेरे पिता जोर दे रहे थे कि मैं देश छोड़ दूं। देश छोड़ना दुख के समंदर में डूबने जैसा है।

मैं काबुल हवाई अड्डे की तरफ बढ़ रही थी। जान बचाकर भाग रहे लोगों के बीच तालिबान के पथरीले चेहरे दिखाई दे रहे थे। मुझे यकीन नहीं हो रहा था कि तालिबान ने किसी टिड्डीदल की तरह मेरे देश पर, मेरे अफगानिस्तान पर कब्जा कर लिया है। हमें एक सैन्य विमान से कतर पहुंचाया गया। हमें एक भीड़भाड़ वाले कैंप में रखा गया जहां बहुत गर्मी थी। यहां करने के लिए कुछ नहीं था।

महिलाएं इकट्ठा होतीं और अपने उन लोगों के बारे में बात करतीं जिन्हें वे पीछे छोड़ आई हैं। वे लगातार रोती जाती थीं। वर्तमान और भविष्य से बेपरवाह बच्चे कैंप में खेलते रहते और मैं उन्हें देखकर कुछ देर के लिए दुख से दूर हो जाती। उन्हें हंसता-खेलता देख मेरी आंखों से आंसू निकल पड़ते। मेरा 8 साल का इकलौता बच्चा कई ऐसे सवाल पूछता जिनका जवाब देना मेरे लिए मुश्किल हो जाता।

वह पूछता, मां तालिबान ने हमारे देश पर कब्जा क्यों कर लिया? मां, तालिबानी आपको मारना चाहते हैं? क्योंकि आपने उनके खिलाफ किताब लिखी है। देश छोड़ने का मतलब क्या होता है? मां, मैं चाहता हूं कि चाचा खालिद भी हमारे साथ चलें। मेरा बच्चा मुझसे मुश्किल सवाल पूछता और जवाब में मेरी आंखों से बस आंसू ही निकलते। कतर के कैंप के दिन मेरे लिए बहुत मुश्किल थे। मेरे पास मेरे लैपटॉप का चार्जर भी नहीं था इसलिए मैं कुछ लिख नहीं पाती। मेरे पास करने के लिए कुछ था ही नहीं। मेरे पास कोई किताब भी नहीं थी जिसे पढ़कर मैं कुछ देर के लिए ही सही, वर्तमान से दूर हो पाती। यहां कैंप में रह रहे हर व्यक्ति कि अपनी कहानी थी। मेरे सामने कितनी कहानियां घट रही थीं।

यहां आकर भी यही लग रहा था कि मैं एक बार फिर दुख और दर्द के अंधेरे कुएं में गिर गई हूं। अमेरिका के सैन्य विमान में कई हवाई अड्डों पर उतरने और कैंप में रहने के बाद अब मैं टेक्सास पहुंच गई हूं। यहां भी मेरी रातें अपना घर छोड़कर आई महिलाओं के विलाप और अपने खिलौने और अपनी दुनिया छोड़कर आए बच्चों के रूदन से भरी हैं। मैं सोचती हूं कि काश यहां इस हॉल में कोई बड़ा TV होता जिस पर कार्टून देखकर बच्चे कुछ देर के लिए ही सही, अपने मां-बाप के दुख से दूर हो जाते।

मेरे भीतर अब भी हजारों सपने हैं। छोटे-बड़े सपने। उनमें सबसे बड़ा सपना फिर से काबुल लौटना है। मैं अपने फोन की फोटो अलबम देखती हूं, अपनी जिंदगी के बीते पलों में लौटती हूं और मेरी आंखें गीली हो जाती हैं।

ऐसा लगता है कि मेरी पूरी जिंदगी मोबाइल फोन की गैलरी तक सिमटकर रह गई हो। मुझे अपने घर की तरफ बढ़ती गलियां याद हैं। अपनी छत को जाती सीढ़ियां याद हैं। किसी अजनबी मुल्क में पूरी जिंदगी बिता देना आसान नहीं है। एक इंसान की जिंदा रहने की जरूरतें खाने और पहनने से अधिक होती हैं। मेरी किताबें काबुल में छूट गई हैं। तालिबान मेरी किताबों के साथ क्या करेंगे?

हुमैरा कादरी लेखिका और महिला और मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं। इन दिनों वो अमेरिका की हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में फैलोशिप पर हैं। 

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