जातिगत जनगणना से क्या हासिल करना चाहते हैं नीतीश कुमार

परंपरावादी जातीय कट्टरता का जो जहर भारतीय समाज में आदिकाल से फैला है, वह स्वतः खत्म हो जाएगा।लेकिन, क्या आजादी के 75 वर्ष बाद भी इस लक्ष्य को हमारा देश प्राप्त कर पाया है? आइए, इस पर विचार करते हैं।

यदि आपने राजनीति के क्षेत्र में जाने के लिए पूरी तरह से मन बना लिया है, तो सबसे पहले आपके लिए यह जानना जरूरी है कि लोकसभा, राज्यसभा, विधानसभा, ग्रामसभा या स्थानीय निकायों में जनप्रतिनिधियों के कितने पद होते हैं। लोकसभा में 545, राज्यसभा में 245 और देश के विभिन्न राज्यों के लिए विधायक विधान परिषद सदस्य इसके साथ ही स्थानीय निकायों के अंतर्गत प्रधान पद, वार्ड पार्षद, जिला परिषद, नगर निगम या नगर परिषद के देशभर में अनेक पद हैं। सबसे खास बात यह कि इन सभी पदों के लिए योग्यता और चुनाव लड़ने के नियम अलग-अलग हैं। लेकिन, एक नियम जो देश के सभी राज्यों में लगभग एक जैसा है, वह यह कि आप किस जाति के हैं और जिस क्षेत्र से आप चुनाव लडना चाहते हैं, उस क्षेत्र में आपकी जाति की कितनी आबादी है। आप कितने ही बड़े समाजसेवी, कितने ही बड़े ज्ञानी, कितने ही बड़े जनसमर्थन वाले क्यों न हों यदि आप जातिगत जनसंख्या में कम हैं, तो आप चुनाव भले लड़ लें, जीतकर किसी सदन में नहीं पहुंच सकते। इसे देश का दुर्भाग्य कहें या सौभाग्य, ऐसा ही हर चुनाव में होता है। भारतीय संविधान में जातीय आधार पर प्रतिनिधित्व देने का प्रावधान है और यह व्यवस्था इसलिए जोड़ी गई थी, ताकि समाज के उपेक्षित, उत्पीड़ित, गरीब और पिछड़े वर्ग को भी आगे बढ़ने का समान अवसर मिले। ऐसा इसलिए भी किया गया, क्योंकि हमारे संविधान विशेषज्ञों का मानना था कि जब तक जमीन समतल नहीं होगी, उसके सभी कोनों में आसानी से पानी नहीं जा सकेगा और जब फसलों को सामान्य रूप से बराबर पानी नहीं मिलेगा, तो जमीन के उस कोने से किसान बराबर की फसल की उम्मीद कैसे करेगा? संविधान निर्माताओं की सोच यह भी थी कि आजादी के कुछ वर्ष बाद देश की सारी जमीन एक जैसी समतल हो जाएगी और फिर उसमें फसल एक जैसी उगने लगेगी। फिर परंपरावादी जातीय कट्टरता का जो जहर भारतीय समाज में आदिकाल से फैला है, वह स्वतः खत्म हो जाएगा।लेकिन, क्या आजादी के 75 वर्ष बाद भी इस लक्ष्य को हमारा देश प्राप्त कर पाया है? आइए, इस पर विचार करते हैं।

भारत में जनगणना की शुरुआत औपनिवेशिक शासन के दौरान वर्ष 1881 में हुई थी। जातिगत जनगणना का इतिहास यदि हम जानना चाहते हैं तो वर्ष 1931 तक भारत में जातिगत जनगणना होती थी। वर्ष 1941 में जनगणना के समय जाति आधारित डेटा जुटाया ज़रूर गया था, लेकिन प्रकाशित नहीं किया गया। वर्ष 1951 से 2011 तक की जनगणना में हर बार अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का डेटा दिया गया, लेकिन ओबीसी और दूसरी जातियों का नहीं। देश में लंबे समय से जाति आधारित जनगणना की मांग की जा रही थी और अब बिहार में इसे लेकर न केवल सहमति बन गई है, बल्कि इसकी प्रक्रिया की शुरुआत भी हो गई है। दरअसल, बिहार में जातीय जनगणना को लेकर ऑल पार्टी मीटिंग बुलाई गई थी, जिसमें जाति आधारित जनगणना को लेकर फैसला लिया गया । अब सर्वसम्मति के बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जातिगत जनगणना को मंजूरी देकर इसकी शुरुआत करा दी है। बिहार सरकार अपने खर्चे पर जनगणना करवा रही है। जातीय जनगणना की मंजूरी को इसलिए अहम माना जा रहा है, क्योंकि देश में वर्षों से कभी भी जाति के आधार पर जनसंख्या की गणना नहीं की गई है। लेकिन, इसकी मांग अरसे से हो रही थी। बता दें कि जातीय जनगणना आजाद भारत में एक बार भी नहीं हुई है। आखिरी बार वर्ष 1931 में ब्रिटिश हुकुमत के दौरान जाति के आधार पर जनसंख्या के आंकड़े जुटाए गए थे। उसके बाद कभी भी जाति के आधार पर जनसंख्या के आंकडे़ जारी नहीं हुए हैं। वैसे तो सबसे पहले सन् 1881 में जनगणना हुई थी और उसके बाद हर 10 वर्ष में जनगणना होती रही, लेकिन 1931 के बाद जाति के आधार पर जनगणना के आंकड़े सामने नहीं आए। वर्ष 1931 के बाद 1941 को जाति के आधार पर जनगणना तो हुई थी, लेकिन इसके आंकड़ें सार्वजनिक नहीं किए गए। इसके बाद भारत आजाद हो गया और फिर वर्ष 1951 में आजाद भारत की पहली जनगणना कराई गई।

पिछले सप्ताह जाति आधारित जनगणना का पहला चरण बिहार में प्रारंभ किया गया, जबकि दूसरा चरण 1 अप्रैल से शुरू होगा। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने दावा किया है कि केंद्र जातीय जनगणना के लिए तैयार नहीं हुआ तो राज्य खुद अपने खर्च पर जनगणना कराने का निर्णय लिया है। उन्होंने कहा कि जातीय जनगणना के साथ ही आर्थिक स्थिति का भी अध्ययन करवा रहे हैं, ताकि पता चल सके कि समाज में कितने लोग गरीब हैं और उन्हें कैसे आगे करना है। उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने कहा है कि जातीय जनगणना के बाद हमारे पास सही वैज्ञानिक आंकड़ा होगा और उसी के आधार पर बजट का स्वरूप बनेगा। हम देखते हैं कि किसी पहिये को चलाने में अवश्य ही पहली बार बड़ी कठिनाई होती है, लेकिन एक बार चला देने से ही वह अधिकाधिक तीव्र गति से घूमने लगता है। दुनिया ज्यों-ज्यों आगे बढ़ रही है, जीवन की समस्याएं गहरी और व्यापक हो रही हैं। यह ठीक है कि विपक्ष का काम सरकार को सही कार्य करने के लिए प्रेरित करना और इसी के तहत बिहार में विपक्षी दल भाजपा के अध्यक्ष डॉ. संजय जायसवाल ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर कई सवाल खड़े किए हैं। उन्होंने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि नीतीश कुमार सिर्फ जातियों की गणना करवा रहे हैं, उपजातियों की गिनती क्यों नहीं करवा रहे हैं ? जायसवाल ने आरोप लगाया कि चूंकि नीतीश कुमार की उपजातियों की संख्या नालंदा में पांच फीसदी भी नहीं है, इसलिए वह पूरे प्रदेश में उपजातियों की गिनती नहीं करवा रहे हैं। राजनीतिक रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने तंज कसते हुए कहा है कि मुख्यमंत्री समाज में उन्माद फैला रहे हैं। इधर जातीय जनगणना को चुनौती देने वाली जनहित याचिका पर सुप्रीम कोर्ट सुनवाई को राजी हो गया है। शीर्ष अदालत ने मामले को 20 जनवरी को सुनवाई पर लगाने को मंजूरी दी है।

अगर बात जातीय जनगणना के फायदों के बारे में करें तो बता दें कि इसको लेकर नेताओं के अपने-अपने तर्क हैं। जातीय जनगणना की मांग करने वाले कुछ नेताओं का कहना है कि जातीय जनगणना से हमें यह पता चल सकेगा कि देश में कौन जाति अभी भी पिछड़ेपन की शिकार है। यह आंकड़ा पता चलने से पिछड़ी जातियों को आरक्षण का लाभ देकर उन्हें सशक्त बनाया जा सकता है। इसके अलावा यह भी तर्क दिया जाता है कि जातीय जनगणना से किसी भी जाति की आर्थिक, सामाजिक और शिक्षा की वास्तविकता का पता चल पाएगा। इससे उन जातियों के लिए विकास की योजनाएं बनाने में आसानी होगी। देश में ऐसे भी लोग हैं, जो चाहते हैं कि देश में जातीय जनगणना नहीं होनी चाहिए। उनका मानना है कि जातीय जनगणना से देश को कई तरह के नुकसान हो सकते है। जैसे यदि किसी समाज को पता चलेगा कि देश में उनकी संख्या घट रही हैं, तो उस समाज के लोग आबादी बढ़ाने के लिए परिवार नियोजन अपनाना छोड़ सकते हैं। इससे देश की आबादी में तेजी से इजाफा होगा। इसके अलावा जातीय जनगणना से देश का सामाजिक ताना-बाना बिगड़ने का खतरा भी रहता है। वर्ष 1951 में भी तत्कालीन गृह मंत्री सरदार पटेल ने यही बात कहकर जातीय जनगणना के प्रस्ताव को खारिज कर दिया था।

क्या जातीय आधारित जनगणना उसी राज्य में कराया जा रहा है जहां स्वयं मुख्यमंत्र नीतीश कुमार ने अपने नाम के आगे से जाति सूचक टाइटल जाति प्रथा को तोड़ने के नाम पर हटा दिया था ? बिहार के इस जातीय जनगणना का असर बिहार की राजनीति पर क्या पड़ेगा, यह तो परिणाम आने के बाद पता चलेगा। वैसे अब तक देश में बिहार ही ऐसा प्रदेश था, जो अपनी जातीय कट्टरता के लिए देश ही नहीं, विश्व में मशहूर था। अब जब जातीयता प्रमाणित रूप से सार्वजनिक होगा, तब क्या स्थिति बनेगी, इस पर बाद में चर्चा करना उचित होगा। दरअसल, बिहार सरकार, समाज और देश को यह संदेश देना चाह रही है कि बिहार सरकार सभी जातियों को संविधान के अनुसार आगे बढ़ने का अवसर दे रही है, ताकि वह जातीयता के आरोप से खुद को मुक्त कर सके। देखा-देखी में देश के सभी राज्य बिहार के नक्शे कदम पर चलकर अपने-अपने यहां जातियों की संख्या जानकर उसके अनुसार सत्ता पर काबिज होना चाहेंगे। फिलहाल, अभी कोई इस जातीय जनगणना के लिए जो कुछ भी कहेगा, वह हवा हवाई ही होगा, लेकिन इसका असर तो तभी होगा, जब इसके अनुसार चुनकर सत्ता में आएंगे और उसी के अनुसार उसे चलाएंगे। ध्यान रखिए, यह स्थिति इसी कहावत को चरितार्थ करेगी कि इंतजार कीजिए, क्योंकि ‘नाई के बाल तो सामने ही गिरेंगे’।

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