तहरीक-ए-तालिबान के उभार की वजह बन सकती है अफगानिस्तान में तालिबानी सत्ता

आइएसआइ ने हमेशा आगे बढ़कर तालिबान का साथ दिया है। एक रिपोर्ट में आइएसआइ को तालिबान का मुख्य संरक्षक तक कहा गया था। तालिबान में आइएसआइ की दखल का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि 2015 में सिराजुद्दीन हक्कानी को तालिबान में बड़ी भूमिका दी गई।

अमेरिकी सेना की वापसी शुरू होते ही अफगानिस्तान पर तालिबान ने कब्जा जमा लिया है। चीन और रूस जैसे देश तालिबान की सत्ता को मान्यता देने और उसके साथ मिलकर काम करने की इच्छा भी जता चुके हैं। इनमें पाकिस्तान सबसे आगे है। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने तो तालिबान के उभार की तुलना ‘गुलामी की बेड़ियां’ तोड़ने से की है। तालिबान को लेकर पाकिस्तान का यह रुख नया नहीं है। हालांकि बदली परिस्थितियों में विशेषज्ञ यह चिंता जता रहे हैं कि अफगानिस्तान में तालिबान की सत्ता से तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) को ताकत मिल सकती है और ऐसा होना क्षेत्रीय शांति के लिए बड़ा खतरा बन सकता है।

भारत के लिए चिंता के कारण: भारत के साथ टकराव के मामले में पाकिस्तान अफगानिस्तान को एक रणनीतिक सहयोगी की तरह देखता है। इसलिए काबुल में जो भी सत्ता रहे, वह उससे हाथ मिलाने का इच्छुक रहता है। वह पिछले चार-पांच दशक से अफगानिस्तान में अपनी पकड़ मजबूत करने की कोशिश में लगा है। ऐसे हालात में अफगानिस्तान में तालिबानी सत्ता के कारण पाकिस्तान में होने वाले बदलावों का रणनीतिक प्रभाव भारत पर पड़ना तय माना जा रहा है।

 

नजदीकी दिखाता रहा है टीटीपी: 2007 में अफगान तालिबान के आतंकियों ने स्थानीय आतंकियों के साथ मिलकर टीटीपी का गठन किया था। इस का मुख्य लक्ष्य पाकिस्तानी सेना के खिलाफ जिहाद करना रहा है। 2007 से 2014 तक इसने पाकिस्तान में कई आतंकी हमलों को अंजाम दिया। कुछ मामलों में अफगान तालिबान और टीटीपी के बीच असहमति भी दिखती है। पाकिस्तान सरकार से सहयोगी रुख को देखते हुए तालिबान यह नहीं चाहता है कि टीटीपी पाकिस्तान सरकार के खिलाफ जिहाद करे। हालांकि अन्य ज्यादातर मुद्दों पर दोनों एक-दूसरे के साथ हैं। 2014 में पाकिस्तान सरकार के सैन्य अभियान के बाद टीटीपी के आतंकियों ने अफगानिस्तान में पनाह ली थी और वहां अफगानिस्तान सरकार के खिलाफ तालिबान का साथ दिया था। अन्य कई मौकों पर भी टीटीपी खुद को तालिबान के साथ दिखाता रहा है। इससे जिहाद और शरीयत का समर्थन करने वाले बड़े तबके का साथ उसे मिला है।

शुरुआत से ही तालिबान को मिलता रहा है पाकिस्तान का समर्थन: 1980 और उसके बाद के वर्षो में अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआइए और पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आइएसआइ ने सोवियत का सामना करने के लिए अफगान आतंकियों को हर तरह से मदद दी थी। 1988 में पाकिस्तान ने अपने यहां आए करीब 30 लाख अफगान शरणार्थियों के लिए मदरसे खोले, जहां उन्हें जिहाद की सीख दी जाती थी। अफगानिस्तान से सोवियत के हटते ही इनमें से करीब 15 लाख वापस अफगानिस्तान चले गए थे, जिससे तालिबान को मजबूती मिली। 2001 में अफगानिस्तान में अमेरिका की अगुआई में नाटो सैनिकों के हमले के समय तालिबान के अहम आतंकियों को पाकिस्तान में पनाह मिली थी। बहुत से आतंकियों ने पाकिस्तान के सीमाई इलाकों में डेरा जमाया था। पाकिस्तान सरकार 2003 से ही इन इलाकों से आतंकियों के कथित सफाए का विफल अभियान चला रही है।

आइएसआइ का हाथ: आइएसआइ ने हमेशा आगे बढ़कर तालिबान का साथ दिया है। एक रिपोर्ट में आइएसआइ को तालिबान का मुख्य संरक्षक तक कहा गया था। तालिबान में आइएसआइ की दखल का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि 2015 में सिराजुद्दीन हक्कानी को तालिबान में बड़ी भूमिका दी गई।

सेना और सरकार के हाथ से बाहर: सिराजुद्दीन हक्कानी उस हक्कानी नेटवर्क का सरगना है, जिसे अमेरिकी खुफिया एजेंसी ने आइएसआइ की शाखा बताया था। इसका अल कायदा से भी करीबी संबंध रहा है। यह साफ है कि पाकिस्तान में सरकार या सेना के न चाहने पर भी आइएसआइ के दम पर तालिबान को उभरने का पूरा मौका मिलता रहेगा।

 

Related Articles

Back to top button