कन्हैया कुमार का बिहार पॉलिटिक्स पर असर, जानिए किसे ‘छाया’ देने की तैयारी में कांग्रेस?

पटना. कन्हैया कुमार भाकपा छोड़ कांग्रेस में टीम राहुल गांधी का हिस्सा जब से हुए हैं तब से ही इसे बिहार की राजनीति के लिए अहम माना जा रहा है. खास तौर पर वोटों के समीकरण के लिहाज से कन्हैया कुमार के जरिये कांग्रेस को पुराने दिनों की याद ताजा करते हुए देखा जा सकता है. दरअसल बिहार में 1990 में पिछड़ा उभार के दौर से पहले सिर्फ और सिर्फ कांग्रेस का ही वर्चस्व था. लेकिन, राष्ट्रीय स्तर पर बदली सियासी तस्वीर के साथ ही बिहार में भी राजनीति में भी परिवर्तन हुआ और सत्ता की बागडोर कांग्रेस के हाथ से छूट गयी और वह पिछलग्गू पार्टी बनकर ही रह गई. कांग्रेस 1990 के बाद से कभी चौथी तो कभी पांचवें या फिर कभी छठे नंबर पर आती रही है. अब फिर वक्त बदलता दिख रहा है और बिहार में कांग्रेस को जरूरत है अपने लगाए पुराने पेड़ों की जड़ों में पानी डालने की ताकि फिर से इस पेड़ की डालियों में हरियाली आए, या फिर कहीं किसी कोने से नया पौधा ही निकल आए.

सियासी जानकार कहते हैं कि ऐसा इसलिए कि कांग्रेस रूपी पेड़ फिर से न सिर्फ हरा-भरा हो सके बल्कि उसकी छांव में कई राजनीतिक पार्टियां छांव लेने को मजबूर हो जाएं. बिहार कांग्रेस के वरिष्ठ कांग्रेसी विधायक शकील खान कहते हैं कि एक समय था जब बिहार में कांग्रेस अपने खास समीकरण दलित, मुस्लिम और सवर्ण वोट बैंक के सहारे राज करती थी. चार दशक तक शासन करने वाली कांग्रेस समय के साथ-साथ इस समीकरण कमजोर पड़ गयी और कांग्रेस अपना रुतबा भी खोता चला गया.

शकील अहमद खान हैं सूत्रधार
शकील अहमद खान आगे यह भी कहते हैं कि अगर बिहार कांग्रेस के नेता और कार्यकर्ता आलसपन और आपसी गुटबाजी को खत्म कर जमीन पर उतरकर मेहनत करे तो कोई शक नहीं है कि पार्टी अपने पुराने जड़ को हरा-भरा कर बिहार की सियासत में अपनी मजबूत पकड़ बना ले. यही नहीं आज हमें जिनके साथ गठबंधन को मजबूर रहते हैं कल दूसरी पार्टियां हमारे साथ गठबंधन को बेताब रहेंगी. आपको बता दें कि शकील खान ही वह नेता हैं जिन्होंने कन्हैया कुमार को कांग्रेस में शामिल कराने में बड़ी भूमिका अदा की है. NRC के मुद्दे पर कन्हैया के साथ शकील खान ने पूरे बिहार में दौरा किया था और उनके सभाओं में अच्छी खासी भीड़ उमड़ती थी.

कांग्रेस को कर्मठ बनना पड़ेगा
शकील अहमद खान की इस बात से बिहार कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और MLC प्रेमचंद्र मिश्रा भी सहमत दिखते हैं. प्रेमचंद्र मिश्रा कहते हैं कि कांग्रेस के परम्परागत वोटर दलित, मुस्लिम और सवर्ण रहे हैं और इसी वोट बैंक की वजह से बिहार में लम्बे समय तक कांग्रेस ने सत्ता में रहते हुए बिहार की जनता की सेवा की है. लेकिन, आज जब हम सत्ता में नहीं हैं तो बिहार में दलित हो या मुस्लिम या फिर सवर्ण, उनके क्या हाल हैं, ये किसी से छुपा हुआ नहीं है. कांग्रेस के साथ एक बार फिर से ये तीनों ही वर्ग मजबूती से जुड़ सकते हैं बशर्ते बिहार कांग्रेस के तमाम नेता पूरी ईमानदारी से इनके बीच जाकर काम करे. कांग्रेस ही एक ऐसी पार्टी है जो सबको लेकर चल सकती है.

कन्हैया कुमार क्या कर पाएंगे?
दरअसल बिहार कांग्रेस के नेता इस बात से बेचैन है कि बिहार में कांग्रेस लगातार अपना जनाधार खोता जा रहा है और राजद की B टीम बन कर रह गयी है. लेकिन, कांग्रेस को लगता है कि कन्हैया के आने के बाद बिहार में कांग्रेस को अपना पुराना जनाधार पाने में मदद मिल सकता है. कन्हैया कुमार सवर्ण समाज से आते हैं और इनकी पकड़ मुस्लिम समाज में भी बहुत अच्छी है. जाहिर तौर पर कांग्रेस इसका फायदा कांग्रेस उठाने की कोशिश करेगी. वरिष्ठ पत्रकार अरुण पांडे कहते हैं कि कांग्रेस पुरानी पार्टी है और इसका अपना जनाधार रहा है, लेकिन बिहार में कांग्रेस के सामने समस्या ये है कि इसके पास कोई जनाधार वाला नेता नहीं है. अब कन्हैया के आने के बाद कांग्रेस की उम्मीद जगी है लेकिन कन्हैया कांग्रेस के उम्मीद पर कितना खरा उतरेंगे फिलहाल यह भविष्य के गर्भ में है.

ढाई दशक में ऐसे गिरता चला गया कांग्रेस की सीटों का ग्राफ
बिहार विधान सभा में कांग्रेस को मिलने वाली सीटों पर जनजर डालें तो वर्ष 1985 में 196, 1990 में 71 ,1995 में 29, 2000 में 23 तो 2005 के फरवरी में विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 10 सीटें मिली थीं. अक्टूबर 2005 में घटकर 9 रह गईं. 2010 के विधानसभा चुनाव में तो कांग्रेस को महज 4 सीटों से ही संतोष करना पड़ा था. 2015 विधानसभा चुनाव में जब RJD और JDU के साथ कांग्रेस महागठबंधन का हिस्सा बनी तो पार्टी को 27 सीटों पर जीत मिली थी. 2020 के विधानसभा चुनाव में महागठबंधन में रहने के बाद भी कांग्रेस महज 19 सीटें जीत सकी. वहीं, लोकसभा चुनाव 2019 में तो कांग्रेस को बिहार में एक सीट मिली थी.

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