पश्चिमी यूपी के लिए शाह की सियासत:120 सीटों के लिए शाह ने याद कराया कैराना पलायन,

जाट वोट बैंक साधने की कोशिश

दो दिन पहले लखनऊ दौरे पर आए केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने मंच से लोगों को एक बार फिर कैराना पलायन की याद दिलाई। यह यूं ही नहीं बल्कि भाजपा की एक सोची समझी रणनीति है। गृहमंत्री ने कहा था कि ‘वेस्ट यूपी में कैराना से पलायन शुरू हुआ, लेकिन लखनऊ में हुकमरानों की नींद नहीं टूटी। आज यूपी में पलायन नहीं हो रहा। पलायन करवाने वालों को पलायन हो गया।’ यूपी के राजनीतिक जानकार मानते हैं कि कहीं न कहीं पश्चिमी यूपी में किसान आंदोलन की वजह से भाजपा की जमीन खिसकी है। जिसकी वजह से अमित शाह एक बार फिर कैराना पलायन की याद दिला रहे हैं।

दरअसल, पश्चिमी यूपी जाट-मुस्लिम का मजबूत गठजोड़ 2013 में हुए मुजफ्फरनगर दंगों में बिखर गया था। जिसकी वजह से पश्चिमी यूपी की 17 लोकसभा सीट और 120 विधानसभा सीटों पर असर रखने वाले जाटों ने 2014 लोकसभा चुनावों में फिर 2017 विधानसभा चुनावों में भाजपा को सपोर्ट किया और भाजपा केंद्र के साथ साथ यूपी की सत्ता में आ गई। अब किसान आंदोलन की वजह से एक बार फिर से यह गठजोड़ बन रहा है। यही वजह है कि विपक्ष एक ओर इस आंदोलन को सपोर्ट कर रहा है तो भाजपा जल्द से जल्द आंदोलन खत्म करना चाहती है ताकि पश्चिमी यूपी में वह एक बार फिर सुपर पॉवर बनकर उभरे।

भाजपा की इस रणनीति को समझने के लिए सबसे पहले जानना जरूरी है कि आखिर जाट राजनीति क्या है ? जाटों को एकजुट कर भाजपा को क्या फायदा मिल सकता है ? जबकि जाट और मुस्लिम गठजोड़ होता है तो भाजपा को कैसे नुकसान उठाना पड़ सकता है ?

अमित शाह 2014 और 2017 में यूपी प्रभारी थे।

पश्चिमी यूपी में जाट राजनीति का कितना असर है ?

पश्चिमी यूपी में कहावत है ‘जिसके जाट उसके ठाट।’ यह कहावत राजनीति पर बिलकुल सटीक बैठती है। यूपी की राजनीति में जिसने भी जाटों को साध लिया उसे सत्ता मिल जाती है। किसानों के मसीहा चौधरी चरण सिंह ने जाटों की बदौलत ही कांग्रेस को पटकनी दी थी। तब उन्होंने दो फार्मूले तैयार किये थे। जिसमें पहला ‘अजगर’ (अहीर, जाट, गुर्जर और राजपूत) और दूसरा ‘मजगर’ (मुस्लिम, जाट, गुर्जर और राजपूत) तैयार किया था। इसी गठजोड़ के सहारे उन्होंने फिर अन्य दलों ने पश्चिमी यूपी पर राज किया। यह गठजोड़ 2013 मुजफ्फरनगर दंगों के बाद टूट गया और यह सिलसिला अभी तक जारी है।

दरअसल, यूपी में 6 से 7% आबादी जाटों की है लेकिन पश्चिमी यूपी में जाट आबादी 17% से अधिक है। जानकार मानते हैं कि पश्चिमी यूपी में कभी जातीय दरार नहीं आई थी लेकिन 1992, 2002 और फिर 2013 में हुए दंगों ने यहां दरार पैदा कर दी। 2014 लोकसभा और फिर 2017 में ध्रुवीकरण हुआ और भाजपा सत्ता में आई। 2019 लोकसभा चुनावों में भी यही हाल रहा।

जाटों को एकजुट कर भाजपा को क्या फायदा मिल सकता है?

इस सवाल का जवाब समझने के लिए हमें 2014 लोकसभा चुनाव से लेकर 2017 विधानसभा और 2019 लोकसभा चुनाव के रिजल्ट को समझना होगा। 2014 लोकसभा चुनाव से पहले मुजफ्फरनगर दंगा होता है। जिसमें जाट और मुस्लिम आमने सामने आ जाते हैं। दंगे में 50 से ज्यादा लोगों की मौत होती है। भाजपा समेत विपक्ष के नेताओं पर भड़काऊ भाषण के आरोप लगते हैं। जिनके मुकदमे आज भी चल रहे हैं। जाट-मुस्लिम गठजोड़ टूटा और भाजपा को पश्चिमी यूपी की 26 लोकसभा सीट में से 23 सीट मिली। जबकि 3 सपा के खाते में गई। इसमें बदायूं, मैनपुरी और फिरोजाबाद जैसी सपा की पारंपरिक सीट शामिल रही। राजनीतिक जानकर मानते हैं कि ध्रुवीकरण की वजह से ही हर बार भाजपा का फायदा होता है। यही वजह है कि 2016 में कैराना से तत्कालीन भाजपा सांसद हुकुम सिंह ने कैराना से पलायन का मुद्दा उठाया था। तब यूपी में सपा की सरकार थी। इस मुद्दे पर खूब राजनीति हुई और भाजपा 2017 में 15 साल बाद यूपी की सत्ता में आई। दरअसल, अमित शाह जानते हैं कि अगर यूपी में 2022 विधानसभा चुनावों में 300 का स्कोर पार करना है तो पश्चिमी यूपी में बहुमत हासिल करना जरूरी होगा।

जाट और मुस्लिम गठजोड़ होता है तो भाजपा को कैसे नुकसान उठाना पड़ सकता है ?

जानकार कहते हैं कि पश्चिमी यूपी पहले किसानों के रूप में पहचाना जाता था। जब से सपा-बसपा और भाजपा ने अपने पैर पसारे पश्चिमी यूपी जातीय खांचों में बंट गया। धीरे धीरे यहां की राजनीति सांप्रदायिक होती चली गई। पश्चिमी यूपी में मुस्लिम बाहुल्य लगभग 32 विधानसभा सीट है। इसके बावजूद भाजपा वहां हमेशा ही उच्च जाति के कैंडिडेट ही खड़ी करती रही है। यह सिलसिला 1992 के बाद से जारी है जबकि 2013 मुजफ्फरनगर दंगे के बाद भी बसपा और सपा जातीय समीकरण के आधार पर ज्यादातर मुस्लिम कैंडिडेट को ही टिकट देती रही है। यही वजह है कि धीरे धीरे पश्चिमी यूपी के लोग जातीय खांचों में बंट गए हैं।

सीनियर जर्नलिस्ट समीरात्मज मिश्रा कहते हैं कि यदि यह किसान आंदोलन लंबा खिंच गया तो आगामी 2022 विधानसभा चुनावों में पश्चिमी यूपी में भाजपा को नुकसान उठाना पड़ सकता है लेकिन अगर आंदोलन लंबा नहीं खिंचा तो विपक्षी दलों को जाटों को चुनाव तक एकजुट करने के लिए मशक्कत करती रहनी पड़ेगी। वह कहते हैं कि यह देखना होगा कि अब से चुनाव के बीच कोई चमत्कार न हो जाये, कोई सर्जिकल स्ट्राइक, कोई दंगा न हो जाये। यदि ऐसा हुआ तो भाजपा को बहुत मुश्किलों का सामना पश्चिमी यूपी में नहीं करना होगा।

क्या है मुजफ्फरनगर दंगा और कैराना पलायन ?

मुजफ्फरनगर दंगा
27 अगस्त 2013 को कवाल में छेड़खानी हुई। दोनों तरफ से हिंसा में दो मुस्लिम लड़कों की मौत के बाद दंगा भड़क गया। घटना ने धीरे धीरे बड़ा रूप ले लिया। उसके बाद मुजफ्फरनगर में लगी दंगो की आग बुझाये नहीं बुझी। हिंसा में 50 से ज्यादा लोगों की मौत हुई।

कैराना पलायन
मई 2016 में कैराना से तत्कालीन सांसद हुकुम सिंह ने कैराना से कुछ हिंदुओं के पलायन का आरोप लगाया था। उनका कहना था कि मुस्लिम दबंगों के चलते हिन्दू परिवार कैराना से पलायन कर रहे हैं। इसको लेकर भी खूब राजनीति हुई थी।

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