हरदा का लिख रहे अभी तक का सफरनामा , आंदोलन के लेकर पहली सरकार तक पहुँच गए हरदा

उत्तराखण्डियत तक का सफरनामा – (पार्ट-6)

9 नवम्बर, 2000 में राज्य अस्तित्व में आया। कुछ समय बाद मुझे कांग्रेस अध्यक्ष बना दिया गया। कुछ सीमा तक मेरी व उक्रांद की अपील का क्षेत्र लगभग एक समान था। कांग्रेस पर भाजपा व उक्रांद, दोनों राज्य विरोधी होने का आरोप गढ़ते थे। उसकी काट के लिये हमने अपने साथ संयुक्त संघर्ष समिति में जुड़े साथियों को कांग्रेस में बड़े-2 पद दिये। उन्हें पार्टी के सयुक्त चेहरे में सजाया। मैं धूमाकोट व यमकेश्वर से दो संघर्षशील लोगों को टिकट देना चाहता था। जंतर-मंतर दिल्ली पर सर्वाधिक लम्बे समय तक धरने पर बैठने वाले  देब सिंह रावत को भी, मैंने कांग्रेस से लड़ने का प्रस्ताव दिया था। इस प्रयास को पर्याप्त होता न देखकर मैंने, उक्रांद से मिलकर चुनाव लड़ने का विचार आगे बढ़ाया।  दिवाकर भट्ट जी बड़ी मुश्किल से कांग्रेस को जूनियर पार्टनर बनाने को सहमत हुये। मैं चाहता था उत्तराखण्ड के भावी स्वरूप को बनाने में प्रमुख राज्य आन्दोलनकारी कांग्रेस के साथ मिलकर काम करें। उत्तराखण्ड क्रान्तिदल के साथ प्रस्ताव को सिरे न चढ़ते देखकर, मैंने  प्रताप बिष्ट,  शमशेर सिंह बिष्ट और किसी माध्यम से पी.सी. तिवारी को प्रस्ताव भेजा कि वे कांग्रेस से लड़ें।  मैंने, श्री नारायण

सिंह जंतवाल जी व नवीन मुरारी जी के पास भी स्वयं और दूसरों के माध्यम से संदेश भेजे। हम किसी प्रकार केवल  प्रताप बिष्ट को कांग्रेस से लड़ने के लिये तैयार कर पाये। उन्हें भिकियासैंण से पार्टी ने उम्मीदवार बनाया। मैं स्वयं भिकियासैण से लड़ना चाहता था, वहां मेरा घर था। मैं वहां का ब्लाॅक प्रमुख रहा था। मगर मुझे खुशी है मैं एक सोच के लिये यह त्याग कर पाया। आज मेरे इस निर्णय का नुकसान, मैं और मेरी संतान भुगत रही है। मेरा कोई गृहक्षेत्र नहीं है और सारा जहाॅ अपना है। हाॅं, मुझे श्री पूरन सिंह डंगवाल को रानीखेत से टिकट न दे पाने का गहरा दुःख रहा। यदि वह चुप रह जाते, मेरे मन में उन्हें पार्टी राज्यसभा में भेजे इसकी ईच्छा थी। मैंने उन्हें समझाया भी था। खैर कुछ भी हो कुछ चेहरों के बल पर व संयुक्त संघर्ष समिति के अपने कार्यकाल की गतिविधियों एवं कांग्रेस के कलकत्ता प्रस्ताव के बलबूते पर, राज्य विरोधी के आरोप को नकारने में हम सफल रहे। राज्य संघर्ष से भावनात्मक रूप से जुड़े लोगों को कांग्रेस के साथ जोड़ने में हम सफल हुये। कांग्रेस सत्ता में आयी। कांग्रेस के सत्ता में आने में पार्टी के पहले चुनाव घोषणापत्र ने भी हमारी बड़ी मदद की। यह घोषणा पत्र उत्तराखण्डियत व विकास की आधुनिकतामय व्यवहारिक सोच का दस्तावेज है। इस दस्तावेज को बनाने में श्री किशोर उपाध्याय व  धीरेन्द्र प्रताप की बड़ी भूमिका है। हम मित्रों ने इसे राज्य में घूमते-2 सड़कों पर तैयार किया था। हम लोगों ने कांग्रेस पार्टी के चुनावी तैयारी की रूप रेखा भी  धीरेन्द्र की गाड़ी में बैठे-बैठे किया।

राज्य बना, कांग्रेस सत्ता में भी आई। मेरे साथ राज्य विरोधी का चस्पा हटा तो  नारायण दत्त तिवारी विरोधी का ठप्पा लगा दिया। कुछ लोग राजनैतिक रूप से मेरी पिटाई करने के लिये आज भी उसका उपयोग करते हैं। कोई यह नहीं बताता है कि पूरी शक्ति के साथ 5 वर्ष लगातार पार्टी का बहुमत बनाये रखने में किसका योगदान था। इसी राज्य में उदाहरण है लोगों ने 9 विधायकों के बल पर सरकार को बदलने का प्रयास किया था। यह भी सत्यता है कि मेरे साथ पूरे पांच वर्ष पार्टी में बहुमत था। मैं,  विजय बहुगुणा जैसी हिम्मत नहीं दिखा पाया। क्या मुझे प्रलोभन नहीं दिये गये। मेरा डी.एन.ए. कांग्रेस का था। मैंने कभी 29 विधायकों के बल पर भी राज्य में सत्ता पलट करने की नहीं सोची। मुझे अपनी पार्टी निष्ठा पर गर्व है। हाॅं मैं उतना ही निष्ठापन, उत्तराखण्ड व पार्टी के घोषणापत्र के प्रति भी बना रहा। मैंने  तिवारी के सत्ता सभालने के पहले दिन, अर्थात शपथ ग्रहण के दिन से ही उत्तराखण्डियत के दस्तावेज, ‘‘घोषणा पत्र’’ को पृष्ठ भूमि में नहीं जाने दिया। मैंने मुख्यमंत्री से बलपूर्वक कहा कि वे गर्वनर के अभिभाषण व बजट में घोषणापत्र के सभी प्रमुख बिन्दुओं को स्थान देवें। सीमान्त क्षेत्रों में खुले विशेष आई.टी.आई. काॅलेज व राजीव नवोदय विद्यालय, मेरे इसी आग्रह के प्रमाण हैं। विधानसभा के सम्मुख धरने पर बैठने का मेरा निर्णय के आधार पर ही मेरी बड़ी आलोचना की जाती है। मैंने एआईसीसी के निर्देश के बावजूद भी धरने पर बैठने का निर्णय लिया। आज उसी का परिणाम है कि तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने उत्राखण्ड में स्थापित हो रहे उद्योगों में 70 प्रतिशत नौकरियां स्थानीय नौजवानों को देने का आदेश निकाला। मैंने प्रारम्भ में लालबत्ती कल्चर को प्रोत्साहित करना उचित नहीं समझा और मुख्यमंत्री जी से इसका प्रभाव आने वाले दिनों में बहुत विषम होगा। एआईसीसी के विरोध के बावजूद भी मैंने धरने पर बैठने का फैसला किया था। सरकारी व वनभूमि पर कब्जदारों को हटाया नहीं जायेगा। मेरी घोषणा से हजारों लोग उजड़ने से बच गये। इस घोषणा को लेकर भी दिल्ली में बड़ा ड्रामा हुआ। दिल्ली में नेतृत्व को बताया गया है कि मैं सरकारी जमीनों पर अपने लोगों से कब्जा करवा रहा हॅू। इस पर एक शीर्ष बैठक दिल्ली में हुई। इस बैठक पर फिर कभी बात करूंगा।

यहां मैं इतना ही कहना चाहता हॅू मैंने उपरोक्त कदम उत्तराखण्ड जिस भावना से बना था, उसकी रक्षा के लिये उठाये।  नारायण दत्त तिवारी जी भगवान विश्व कर्मा की तरह परम शिल्पी थे। उत्तराखण्ड भी कहीं उत्तर प्रदेश की प्रति कृति न बन जाय मैं इस दिशा में हमेशा सजक रहता था। मुझसे जितना सम्भव हुआ मैंने उन्हें उत्तराखण्ड तक सीमित रखने का प्रयास किया। मैंने सरकार से कुछ फायदा नहीं उठाया। मेरे परिवार व स्वजनों ने भी कोई फायदा नहीं उठाया। मैंने न कोई ठेका, न कोई खान, न क्रेशर या न जमीन का पट्टा लिया। विधानसभा में मेरा कोई स्वजन नौकरी पर नहीं लगा। कोई ढूंढकर भी नहीं बता सकता है। मैं तो केवल उत्तराखण्डियत के पहले दस्तावेज घोषणा पत्र को ही थामे रहा और तिवारी सरकार को थामे रहा।  तिवारी 5 वर्ष लगातार मुख्यमंत्री बने रहे। यह पार्टी के प्रति मेरी निष्ठा का सबसे बड़ा प्रमाण है। मेरे निश्चय के बिना यह सम्भव नहीं था। मैंने उत्तराखण्डियत के लिये तिवारी जी के विरोध का ठप्पा भी अपने ऊपर लगने दिया।

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