जर्मनी में लग्जरी कारमेकर BMW और डेमलर के खिलाफ क्लाइमेट चेंज का मुकदमा चलेगा

जानिए इस केस के बारे में सब कुछ

जर्मनी में क्लाइमेट चेंज के मुद्दे पर काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं ने लग्जरी कार बनाने वाली कंपनियों BMW और डेमलर के खिलाफ मुकदमा दायर किया है। आरोप लगाया गया है कि ये कंपनियां कार्बन एमिशन से जुड़े टारगेट्स पूरे करने से इनकार कर रही हैं। यह पहली बार है जब जर्मनी के नागरिकों ने क्लाइमेट चेंज के मुद्दे पर प्राइवेट कंपनियों को कठघरे में खड़ा किया है।

एक गैर-सरकारी संगठन ड्यूश अमवेल्थलाइफ (DUH) ने यह मुकदमा दायर किया है। यह उसी तरह का है, जैसा ग्रीनपीस के जर्मनी डिवीजन ने फ्राइडेज फॉर फ्यूचर एक्टिविस्ट क्लैरा मायेर और अज्ञात जमीन मालिक के साथ मिलकर फॉक्सवैगन के खिलाफ मुकदमा दायर किया था। इस मामले में ग्रुप ने फॉक्सवैगन को 29 अक्टूबर तक जवाब देने को कहा है। DUH ने एनर्जी फर्म विंटरशल को भी एमिशन टारगेट्स को सीमित करने की चुनौती दी है। हालांकि कोई मुकदमा दाखिल नहीं किया है।

आइए समझते हैं कि क्लाइमेट चेंज को लेकर यह केस क्या है? यह क्या मायने रखता है? क्लाइमेट चेंज के खिलाफ पूरी दुनिया में चल रही लड़ाई को कैसे यह मजबूती देगा?

इस केस का आधार क्या है?

मई 2020 में जर्मनी की टॉप कोर्ट ने टिप्पणी की थी कि देश का क्लाइमेट कानून भविष्य की पीढ़ियों को सुरक्षित रखने के लिए पर्याप्त नहीं है। उसने प्रमुख आर्थिक सेक्टर में कार्बन एमिशन बजट भी तय किए थे। 1990 के स्तर के मुकाबले 2030 तक एमिशन लेवल को 55% से बढ़ाकर 65% करने का टारगेट सेट किया है। साथ ही यह भी कहा कि 2045 तक जर्मनी को कार्बन-न्यूट्रल देश बनना है।कोर्ट ने कहा था कि इन डिमांड्स को पूरा करने के लिए मौजूदा पीढ़ी की लाइफस्टाइल पर कुछ पाबंदियां लगाना जरूरी है। अगर यह नहीं हुआ तो भविष्य की पीढ़ियों को ज्यादा गरम हो चुकी दुनिया में बड़े त्याग करने पड़ेंगे। तभी समस्या और गंभीर होने से रोकी जा सकेगी।इसी महीने नीदरलैंड में पर्यावरण कार्यकर्ताओं के एक ग्रुप ने ऑयल कंपनी शेल के खिलाफ एक केस जीता है। कंपनी क्लाइमेट पर असर को कम करने के लिए पर्याप्त काम नहीं कर पा रही थी। तब कोर्ट ने उसे एमिशन कम करने के आदेश दिए। यह दुनिया की पहली प्राइवेट कंपनी है, जिसे किसी कोर्ट ने एमिशन कट करने के आदेश दिए हैं।

इन दो फैसलों के आधार पर जर्मनी के एक्टिविस्ट्स ने अपना केस बनाया है।

यह क्यों मायने रखता है?

यह केस दो मायनों में महत्व रखता है।

पहला, यह एक कानूनी परिपाटी तय कर सकता है। कंपनियों को प्रोडक्ट्स बनाने की प्रक्रिया में होने वाले एमिशन से लोगों की जिंदगी पर पड़ने वाले प्रभाव के लिए जवाबदेह बनाया जाएगा। अगर इस केस में कार्यकर्ता जीत जाते हैं तो वे एमिशन बढ़ाने की जवाबदेही तय करने के लिए एयरलाइंस से लेकर रिटेलर्स और एनर्जी कंपनियों तक के खिलाफ मुकदमे दर्ज कर सकते हैं। अब तक नीदरलैंड और जर्मनी में ऐसे केस हुए हैं, आगे चलकर भारत जैसे देशों में भी एक्टिविस्ट्स सबसे बड़ी अदालतों का रुख कर सकते हैं।दूसरा, कंपनियों को यह साबित करना होगा कि एमिशन टारगेट्स हासिल करने के लिए वे पूरी ईमानदारी से काम कर रही हैं। इससे यह भी साबित होगा कि वे क्लाइमेट चेंज पर गंभीरता से काम कर रही हैं और इसे कम करने के लिए हरसंभव कोशिश कर रही हैं।

इन कंपनियों को ही टारगेट क्यों बनाया गया?

डेमलर और BMW ने क्लाइमेट संबंधी टारगेट सेट किए हैं। डेमलर ने 2030 तक प्योर इलेक्ट्रिक वाहन (EVs) बनाने का लक्ष्य रखा है और वह 2025 तक सभी मॉडल्स के इलेक्ट्रिक विकल्प देने का वादा कर चुकी है।BMW ने 2030 तक अपनी बिक्री में 50% हिस्सेदारी EVs की करने का टारगेट तय किया है। इससे कार्बन डाई ऑक्साइड (CO2) एमिशन इसी समय सीमा में 50% तक कम हो जाएगा। फॉक्सवैगन ने भी कहा है कि वह 2035 तक पेट्रोल-डीजल (जीवाश्म ईंधन) से चलने वाले वाहन बनाना बंद कर देगी।इन तीनों ही कंपनियों ने साफ किया है कि वह ग्लोबल वार्मिंग के इफेक्ट को कम करने के लिए इंटरनेशनल पेरिस एग्रीमेंट के तहत अपने टारगेट्स पर काम कर रही हैं। हालांकि पर्यावरण के लिए काम कर रहे ग्रुप्स का कहना है-कंपनियों के टारगेट इंटरगवर्नमेंटल पैनल फॉर क्लाइमेट चेंज (IPCC) की ओर से तय किए गए कार्बन एमिशन बजट के हिसाब से पर्याप्त नहीं हैं।कार्बन एमिशन एक्टिविटी को अगर समय पर नहीं रोका गया तो भविष्य में कार्बन बजट को नियंत्रित रखने के लिए व्यक्तिगत अधिकारों पर पाबंदी लगाने पड़ेगी। यह ज्यादा परेशानी वाला काम है। इस तरह ग्रुप्स के टारगेट पर भले ही अभी ऑटोमेकर हैं, आगे चलकर और भी कंपनियों के खिलाफ मुकदमे दाखिल हो सकते हैं।

ये पर्यावरण ग्रुप्स क्या चाहते हैं?

DUH का कहना है कि दोनों ही कार कंपनियां 2030 तक फॉजिल फ्यूल से चलने वाली कारें बनाना बंद करने के लिए कानूनन वादा करें। यह सुनिश्चित करें कि इस डेडलाइन तक कंपनियां कार्बन एमिशन कम करने के लिए अपनी गतिविधियों को रफ्तार दें।NGO ने हर कंपनी के लिए पर्सनल कार्बन बजट तय किया है। यह थोड़ा कॉम्प्लेक्स कैल्कुलेशन है। इसका आधार IPCC की ओर से तय किया गया आंकड़ा है, जो कहता है कि पृथ्वी का तापमान 1.7 डिग्री से अधिक न बढ़े, उतना कार्बन हम एमिट कर सकते हैं।इनके कैल्कुलेशन के अनुसार कंपनियों ने जो क्लाइमेट टारगेट्स रखे हैं, वह उनके बजट के हिसाब से पर्याप्त नहीं है। अगर वे अपने बजट पर कायम भी रहीं तो भी एमिशन टारगेट्स पूरे नहीं कर सकेंगी।

कंपनियों का इस पर क्या कहना है?

BMW ने कहा कि पूरी इंडस्ट्री क्लाइमेट टारगेट्स को पूरा करने की तैयारी में है। उनके टारगेट्स पृथ्वी के तापमान में बढ़ोतरी को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने की दिशा में ही आगे बढ़ रहे हैं।फॉक्सवैगन ने कहा कि वह इस मसले पर विचार करेगी, पर सोसायटी में होने वाले बदलावों के लिए कंपनियों के खिलाफ मुकदमे चलाना सही तरीका नहीं है।डेमलर ने कहा कि इस केस का कोई आधार नहीं बनता है। कंपनी ने बयान जारी कर कहा कि हम क्लाइमेट न्यूट्रैलिटी की दिशा में स्पष्ट कर चुके हैं। इस दशक के अंत तक हम पूरी तरह इलेक्ट्रिक होना चाहते हैं- जैसा भी बाजार की परिस्थितियां अनुमति देंगी।

अब आगे क्या होगा?

मामला अभी जर्मनी की डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में है। उसे ही तय करना है कि केस को आगे बढ़ाना चाहिए या नहीं। अगर उसने आगे बढ़ाया तो कंपनियों को उन पर लगे आरोपों के खिलाफ अपना बचाव पेश करना होगा। दोनों पक्षों में लिखित बयानों की बहस भी शुरू हो जाएगी।इसमें फैसला आने में कुछ साल लग सकते हैं। इसमें जितना समय लगेगा, उतना ही कंपनियों को खोने का खतरा रहेगा। अगर कोर्ट ने 2030 तक कुछ लागू करने को कहा, तो उन्हें यह करने के लिए वक्त काफी कम मिलेगा।

भारत की क्या स्थिति है?

भारत में कार कंपनियों को 2030 की डेडलाइन दी गई है। इससे पहले उन्हें फॉजिल फ्यूल्स से चलने वाली कारों का प्रोडक्शन बंद करना होगा। कई कंपनियों ने इस मसले पर आगे बढ़ते हुए हाइब्रिड और इलेक्ट्रिक वाहनों के लिए प्रोडक्शन शुरू कर दिया है या उस पर प्लानिंग कर रही हैं।मारुति ने 2019 में डीजल कारों को अपने पोर्टफोलियो से हटाने का ऐलान किया था। यह बात अलग है कि अगले ही साल यानी 2020 से उसने फिर छोटी डीजल कारों पर काम शुरू कर दिया। इसका मतलब यह नहीं है कि भारत में इलेक्ट्रिक वाहनों के लिए प्रयास कमजोर हुए हैं।आज हर दूसरी कंपनी भारत में इलेक्ट्रिक कारों को बनाने पर रिसर्च एंड डेवलपमेंट कर रही है। प्रदूषण फैलाने वाली पुरानी कारों को सड़कों से हटाने के लिए इसी साल नेशनल ऑटोमोबाइल स्क्रैपेज पॉलिसी घोषित हुई है।प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अगस्त में सियाम के सम्मेलन में कहा था कि हम क्लीन और मॉडर्न मोबिलिटी के विजन को पूरा करने के लिए आगे बढ़ रहे हैं। ऑटो मैन्युफैक्चरिंग के साथ पूरी वैल्यू चेन में ही बड़े बदलाव होंगे। हम ग्लोबल मैन्युफैक्चरिंग हब बनने की राह पर हैं।

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