बुर्का और वफादारी का पैमाना

मर्दों को लगता है कि चेहरा ढंकने वाली औरतें वफादार होती हैं, फसाद तो तब शुरू होता है, जब वे पर्दा हटा देती हैं

 

बचपन ननिहाल में बीता। वहां रसोई के एक आले में किस्म-किस्म के मर्तबान थे। किसी में अचार, किसी में मुरब्बा। एक और मर्तबान भी था। मोटे कांच वाला वो धुंधलाया बरतन कहानियों से भरा थी। अचार से भी ज्यादा चटपटी, पुरानी-मौसमी कहानियां उसमें से किसी जिन्न की तरह निकलकर जकड़ लेतीं। ऐसा ही एक किस्सा अपनी परनानी को लेकर सुना।

शादी के बाद वे घर आईं तो बड़ा-सा घूंघट करतीं। नाभि तक आते उस घूंघट में ही घर के सारे काम होते, शायद प्रेम के अलावा। घुप्प अंधेरे और अकेले कमरे में ही ‘शायद’ वो घूंघट हटता हो! वक्त के साथ पीठ कमान हो गई लेकिन घूंघट बना रहा। कहते हैं कि मरने से पहले भी परनानी ने परदे की इच्छा जताई थी।

जो काम आदमी के लिए मूंछें करती हैं, वही काम औरत के लिए घूंघट। परनानी खप गईं, लेकिन घूंघट का जिन्न अब भी हवाओं में है। तभी तो पत्नी के घूंघट न करने पर एक पति महोदय को इतना गुस्सा आया कि उसने अपनी 3 साल की बेटी को पटककर मार डाला।

घटना राजस्थान के अलवर की है। वहां पत्नी के ठीक से घूंघट नहीं डालने पर नाराज पति ने 3 साल की बेटी को हवा में उछालकर पटक दिया। पति को यकीन था कि इससे तमीज से घूंघट करने में ना-नुकुर करती पत्नी को बढ़िया सबक मिलेगा और वह ताजिंदगी साड़ी का पल्लू ठुड्डी से नीचे रखेगी। बच्ची की मौत के बाद मां ने न सिर्फ घूंघट उतार फेंका, बल्कि पति के खिलाफ हत्या का मुकदमा भी दर्ज कराया। बीते तीन दिनों से ये मामला चर्चा में है।

 

इधर अफगानिस्तान से लगातार मिलते-जुलते वाकये सुनाई दे रहे हैं। वहां तालिबानी लड़ाके घरों में घुसते हैं और सबसे पहले पक्का करते हैं कि घर की औरतें कायदे के कपड़ों यानी बुरके या हिजाब में हों। इस पर तसल्ली हो जाए, तब बारी आती है घर के अलबमों की। एक-एक करके सारी पुरानी तस्वीरें खंगाली जाती हैं। अगर किसी तस्वीर में 8 साल से ज्यादा की कोई लड़की, अपने किसी ‘पुरुष’ क्लासमेट के साथ मुस्कुराती खड़ी हो तो तुरंत उस तस्वीर को आग के हवाले कर दिया जाता है। तालिबानी कानून के मुताबिक 8 साल की उम्र के बाद बच्चियां, औरत बन जाती हैं। इन औरतों को पिता-भाई या पति के अलावा किसी को अपना चेहरा दिखाने की इजाजत नहीं।

औरत की आंखें, नाक, होंठ से लेकर सिर के छोटे-लंबे बाल तक पुरुष का सब्र तोड़ने के लिए काफी हैं। लिहाजा तालिबान ने आधी आबादी को परदे में बिठा दिया। न तो चेहरा दिखेगा और न पुरुष लटपटाकर गिरेंगे।

औरत का ढंका चेहरा सिर्फ पुरुषों के सीधे रास्ते चलने की गारंटी नहीं, बल्कि इसके कई दूसरे फायदे भी हैं। ढंके चेहरे वाली औरत ‘वफादार’ होती हैं। वो पति की हर बात मानती हैं और हरदम उसके पीछे चलती हैं। जैसे पति-पत्नी किसी यात्रा पर निकले तो औरत सिर झुकाए-झुकाए रास्ता चलेगी। उसकी नजरें पति के पैरों पर होंगी। जहां-जहां पति के पैर बढ़ेंगे, वहां-वहां औरत भी चल पड़ेगी। घूंघट है तो क्या हुआ! रास्ता दिखाने के लिए पति के पैर तो हैं।

घूंघट वाली औरत पति समेत घर के सारे पुरुषों को उनके पैरों से पहचानती है। टेढ़े नाखूनों वाला पैर ससुर का। जर्द पैर जेठ का। मजबूत लेकिन छितरे हुए पैर पति के। जैसे ही पांव सामने आते हैं, वो तुरंत पैरों की बनावट के मुताबिक व्यवहार शुरू कर देती है। जेठ या ससुर हों तो घूंघट खींचकर घुटनों तक पहुंच जाता है। पति हैं तो हल्की सी नोकझोंक के बीच थाली परोसी जाती है मान-मनौवल चलता है। तो सबकुछ हो लेकिन घूंघट में।

जहां घूंघट हटा, फसाद शुरू हो जाता है। बिना परदे वाली औरत को रास्ता देखने के लिए पति के पैर देखने की जरूरत नहीं। वो देख भी पाती है और तय भी कर पाती है कि कौन-सा रास्ता कहां ठहरेगा। खुले चेहरे पर धूप और ताजी हवा लगना आग में घी जैसा काम करता है। औरत के भीतर पड़ा सपनों का बीज टप्प से आंखें खोल देता है। वो हरियाने लगता है और यहां तक कि बढ़ते-बढ़ते औरत के ‘औरतपन’ पर हावी हो जाता है। ऐसी औरत अकेली सपने नहीं जीती, बल्कि आसपास की सारी जनानियों को इकट्ठे सपना देखने की ट्रेनिंग देने लगती है। यही है असल खतरा।

औरत अगर सपने देखेगी तो आटा कौन गूंथेगा। औरत अगर सपने जीने लगेगी तो बच्चे की पोतड़ियां कौन धोएगा। औरत अगर घर से बाहर निकल जाए तो घर कौन संभालेगा। औरत अगर आर्ट गैलरी, साइंस लैब, सड़कों-खेतों में जमा हो जाए तो मर्द कहां जाएंगे। मर्दों की जगह घर नहीं। घर तो उनके लिए थकान मिटाने का ठिकाना है। जब ‘मर्द-पिकासो’ अपनी कला से ऊब जाते हैं तो चेंज के लिए घर लौटते हैं। वहां ‘घूंघटदार’ पत्नी उनका इंतजार करती होती है, गर्मागर्म खाने और बच्चों के साथ। यही वो जगह है, जो थके हुए पुरुष को दुलराकर वापस ताजदम करती है कि वो अपने रंगों-कलम-औजार के साथ अपनी दुनिया में दोबारा लौट सके।

वहीं घूंघट का हटना, दिमाग के भी रोशनदान खोल देता है। परदा उठेगा तो औरत मंच पर पहुंच जाएगी। थिरकती रोशनी के बीच वो अपनी कला दिखाने लगेगी। तालियों की आवाज उसे और मजबूती देगी। ये खतरनाक है! मर्दों के लिए ही नहीं, पूरी दुनिया के लिए। लिहाजा उससे घूंघट करवाया जाता रहा। कभी मजहब के हवाले से, कभी रिश्तों के हवाले से, और कभी औरत होने के हवाले से।

अब परदा हटने लगा है। औरतें इसकी कीमत भी चुका रही हैं। राजस्थान की मां को घूंघट के बदले अपनी बेटी गंवानी पड़ी। इसकी भरपाई नहीं हो सकती, लेकिन इतना पक्का है कि अब वो मां दोबारा कभी न तो अपने चेहरे, और न ही अपने दिल-दिमाग पर कोई झीना-सा परदा भी पड़ने देगी।

 

 

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