बदायूं में भाजपा और सपा का अंदरूनी गुटबाजी से हुआ बुरा हाल

समाजवादी पार्टी ने 20 फरवरी को ही साफ कर दिया था कि इस बार लोकसभा चुनावों में बदायूं से चाचा शिवपाल यादव लड़ेंगे लेकिन भाजपा शिवपाल यादव के खिलाफ किसे मैदान में उतारे, पार्टी में इसकी कशमकश लगातार चल रही थी। सपा की घोषणा के करीब एक महीने बाद 24 मार्च को भाजपा ने पांचवी लिस्ट जारी करके बदायूं से दुर्विजय सिंह शाक्य के नाम की घोषणा की। इसके बाद यह तो साफ हो गया कि अब मुकाबला शिवपाल यादव और दुर्विजय सिंह शाक्य के बीच होगा, जो काफी दिलचस्प रहने वाला है।

दोनों में से किसकी जीत होगी, ये तो 4 जून को पता चलेगा, लेकिन इन दोनों नामों की घोषणा से भाजपा और सपा की अंदरूनी गुटबाजी अब सामने आने लगी है।

भाजपा में गुटबाजी का कारण

भाजपा के साथ काम करने वाले ये तो सभी जानते हैं कि दुर्विजय सिंह शाक्य को केशव प्रसाद मौर्य के काफी करीबी माना जाता है और उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य अकसर गृहमंत्री अमित शाह के साथ अपनी नज़दीकियां दिखा ही देते हैं। हाल ही चुनावों के ऐलान से पहले भी केशव प्रसाद मौर्य ने दिल्ली में अमित शाह से मुलाकात की थी। दोनों की प्रगाढ नज़दीकियां काफी मशहूर है।

जानकारों का मानना है कि केशव प्रसाद मौर्य और योगी आदित्यनाथ के रिश्तों में सहजता नहीं है। उन दोनों के रिश्तों में कड़वाहट का अहसास तब हुआ, जब 2022 के विधानसभा चुनावों के बाद लोकल कोर्ट ने उन्हें कथित रूप से फ़र्ज़ी डिग्री के इस्तेमाल पर नोटिस भेजा था। इसके अलावा भी कई मौकों पर योगी के साथ मतभेदों को हवा दी है।

वहीं कथित तौर पर अमित शाह और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ में भी दूरियों की चर्चा अकसर रहती है। दोनों ही नेताओं के बारे में अकसर बाज़ार गर्म रहता है कि मोदी के बाद दूसरे नंबर पर योगी है या शाह है! हालांकि जानकार कहते हैं कि मोदी के बाद योगी होगा या शाह, इसका फैसला आरएसएस करेगी, लेकिन दोनों के रिश्तों को लेकर अक्सर दबी जुबान में अनौपचारिक खबरें आती रहती है कि दोनों के रिश्तों में कोई खास मधुरता नहीं है।

रिश्तों की इस उलझन में नुकसान भाजपा के उम्मीदवार को हो जाता है। इससे पहले अंदरूनी राजनीति के चलते ही 2022 में विधानसभा चुनावों में केशव प्रसाद मौर्य सिरथू विधानसभा सीट से हार गए थे। कुछ ऐसा ही इस बार हो सकता है, अंदरूनी राजनीति और गुटबाजी के चलते दुर्विजय को विरोधी पार्टियों की अपेक्षा अपनों से सावधान रहने और संभलने की ज़्यादा ज़रूरत है।

सपा में गुटबाजी को रोकने की कोशिशे तेज़

इधर समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव शिवपाल सिंह यादव को जब से बदायूं सीट का उम्मीदार घोषित किया है, तब से सलीम इकबाल शेरवानी और आबिद रजा पार्टी से खफा नज़र आ रहे हैं। मुसलमान को टिकट न मिलने के कारण वह इसका लगातार विरोध करते आ रहे हैं। उन्हें मनाने के लिए शिवपाल यादव ने पहल की, जब वह पहली बार बदायूं चुनावी दौरे पर आए थे, लेकिन इसका कोई खास परिणाम नज़र नहीं आ रहा।

वहां के स्थानीय नेताओं का कहना है कि हर बार पार्टी किसी भी बाहरी प्रत्याशी को उम्मीदवार बना देती है। इस वजह से वह बदायूं की लोकल समस्याओं को समझने में असमर्थ होता है। राजनीति के जानकारों का मानना है कि पिछली बार धर्मेंद्र यादव के हारने का कारण भी अंदरुनी गुटबाजी रही थी।

गौरतलब है कि साल 1996 से लेकर 2009 तक बदायूं लोकसभा पर समाजवादी नेता सलीम इकबाल शेरवानी का कब्जा रहा है। इसके बाद धर्मेन्द्र यादव यहां से दो बार सासंद रहे और फिर 2019 में हार गए। इस बार वहां के नेताओं के रूठने का असर क्या शिवपाल यादव की जीत या हार पर पड़ेगा।

उधर भाजपा में भी यही हाल है, ऐसे में देखना होगा कि अंदरूनी गुटबाजी किस पार्टी पर ज्यादा हावी होती है।

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