एशिया की बिसात पर चीन की घेराबंदी — लंदन और तेलअवीव का बड़ा दांव

काकेशस से उठती चिंगारी और एशिया का सुलगता नक्शाजिस आग का धुआं काकेशस से उठ रहा है, उसकी चिंगारियाँ अब पूरे एशिया को भस्म करने की ओर हैं। अयातुल्ला खामेनेई के वरिष्ठ सलाहकार अली अकबर वेलायती की चेतावनी सिर्फ ईरान की चिंता नहीं, बल्कि एक भू-राजनीतिक रेड अलर्ट है। ज़ंगेज़ुर गलियारा केवल एक भौगोलिक परियोजना नहीं, बल्कि प्रतिरोधी धुरी—ईरान, रूस और चीन—को तोड़ने की एक सोची-समझी योजना है, जिसके पीछे वॉशिंगटन की CIA, लंदन की MI6 और तेलअवीव के थिंक टैंक मिलकर चालें चल रहे हैं।
दक्षिण-पूर्व एशिया में पश्चिम की चालबाज़ी और चीन को यूक्रेन-रूस जैसे जाल में फँसाने की साज़िश थाईलैंड और कंबोडिया की सीमाओं पर तनाव का खेल, म्यांमार में रंगीन क्रांति की पुनरावृत्ति की तैयारी और ताइवान को यूक्रेन की तरह “प्रतिरोध की प्रयोगशाला” बनाने की कवायद इसी बिसात का हिस्सा हैं। ऑस्ट्रेलिया, जापान, भारत और दक्षिण कोरिया—ये सभी देश एक अघोषित ‘एशियाई नेटो’ के सदस्य की तरह प्रयोग किए जा रहे हैं। लेकिन इस जाल का असली बुनकर कौन है?
तेलअवीव और लंदन की पुरानी जोड़ी— एक सदी पुरानी चाल की वापसी जिस तरह सौ साल पहले ऑटोमन साम्राज्य को तोडा गया था, आज वैसी ही कूटनीतिक शतरंज एशिया में बिछाई जा रही है। लंदन का MI6 और तेलअवीव की सैन्य लॉबी चीन की बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) को रोकने के लिए सीमा-रेखाओं को युद्ध क्षेत्र में बदलने की कोशिश कर रही हैं और बदल भी रही हैं। हर समुद्री रूट, हर कूटनीतिक शिखर सम्मेलन, एक नया मोर्चा बनाने की के सडयंत्र जारी है।
यूरोप की जर्जर होती सैन्य और ऊर्जा रीढ़
यूक्रेन युद्ध ने यूरोप की सामरिक और आर्थिक रीढ़ की कमजोरियाँ उजागर कर दी हैं। अमेरिका और यूरोप द्वारा भेजे गए हथियारों की रूस द्वारा तबाही, यूरोपीय हथियार भंडारों के घटते शस्त्रगार, कारखानों की डिमांड पूरी ना कर पाने की स्थिति और ऊर्जा आपूर्ति में रूसी कटौती ने पश्चिमी देशों को गहरे संकट में डाल दिया है। महंगाई बेलगाम है, जनमानस असंतुष्ट है, और राजनीतिक स्थिरता अब एक सपना बनती जा रही है। इस बीच, नाटो की रणनीतियाँ खोखली गीदड़ भबकी साबित होती जा रही हैं।
भारत की डगमगाती विदेश नीति और घरेलू दुविधा
भारत की डगमगाती विदेश नीति और घरेलू दुविधा भारत इस भूचाल के बीच ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की बात करता है लेकिन उसकी पश्चिम-प्रस्त विदेश नीति और घरेलू राजनीतिक प्राथमिकताओं के बीच तालमेल अब दूर की कोड़ी बन चूका है। पश्चिम से सामरिक करीबी का चुनावी लाभ और निर्यात निर्भरता दूसरी ओर रूस-चीन से किफायती संसाधनों पर निर्भरता ने भारत को एक असमंजस की स्थिति में ला खड़ा किया है। ट्रंप की धमकियों और चीन की सतर्क निगाहों के बीच भारत की सामरिक निष्पक्षता की नीति अब भारी दबाव में दिखाई देने लगी है।
ट्रंप 2.0: विश्व नेतृत्व नहीं, वैश्विक अस्थिरता का इंजीनियर
ट्रंप की भू-आर्थिक रणनीति का केंद्र अब यूरोप नहीं, बल्कि ब्राजील, भारत और ASEAN देशों पर है। ब्रिक्स को कमजोर करना और रूस-चीन को अलग-थलग करना अमेरिका की प्राथमिकता है। लेकिन यह रणनीति अब खुद अमेरिका के लिए ही उलझन बनती जा रही है। Mi6 CIA और तेलअवीव द्वारा पालपोस कर तैयार किए गए घोड़े बग्गी में जुड़ने की स्तिथि खो चुके हैं या उनके पैरों की नाळ कीसी ने उखाड़ दी है।
भारत की उधार की अर्थव्यवस्था:
भारत ने कोई वैकल्पिक अर्थव्यवस्था की तैयारी नहीं की? रूस से भारत को सस्ता तेल मिल रहा है, चीन से सस्ता अर्ध-तैयार माल। यह गठजोड़ भारत की घरेलू मांग और निर्यात की रीढ़ बन चुका है। लेकिन यह सिर्फ आर्थिक समीकरण नहीं, बल्कि अस्थाई राहत मात्र है जो डोमेस्टिक राजनीति में विपक्ष को चुनावी जवाब तो हो सकता है मगर भारत की आत्मनिर्भरता के लिए बहुत बड़ा छलावा भी है जो दूरगामी आर्थिक निति के विकल्प कम कर सकता है। चीन के आगे झुकने को मजबूर कर सकता है।
पिछले 11 वर्षों में रूस ने बार-बार अनुभव किया है कि भारत का झुकाव पश्चिम की ओर है और पूर्व की तरह सशक्त नहीं बल्कि अवसरवादी हो चला है। परिणामस्वरूप, वह चीन के साथ मिलकर अपने दुसरे सहयोगियों को हाई-स्पीड हाइपरसोनिक हथियार दे रहा है, जो युद्ध की तैयारी से अधिक एक मनोवैज्ञानिक संकेत है कि ‘हम अब पश्चिम की भाषा में जवाब देंगे।’
बिखरती पश्चिमी बिसात और उलझे हुए सहयोगी
पश्चिम द्वारा बिछाई गई बिसात अब स्वयं में ही उलझती जा रही है। पारंपरिक सहयोगी—जैसे फ्रांस, जर्मनी और इटली,—अब आर्थिक और सैन्य रूप से थक चुके हैं। वे अपने निर्णयों में ही सहमति असहमती के खेल में फस चुके हैं, और नीतियों में दिशाहीन दिखाई देने लगे हैं । और नए रणनीतिक साझेदार जैसे भारत ताइवान भी घरेलु राजनितिक रोड मेंप सत्ता की मजबूती वाली धार्मिक ज़ंजीर की कड़ियों के टाँके। ऐसा प्रतीत होता है कि जिस अवसर्वदिता को पश्चिम ने ‘वैश्विक व्यवस्था’ कहा था, वही अब अपने ही वजन से चरमराने लगी है।
सभ्यताओं के भविष्य की रणभूमि अब एशिया की बिसात केवल शक्ति संतुलन की लड़ाई नहीं, बल्कि सभ्यताओं के भविष्य का रण बन चुकी है। भारत के सामने सबसे बड़ी चुनौती है— जिसे गंभीरता से समझे बिना रास्ते और जटिल हो सकते हैं।
Written by -: Wahid Naseem